खेल-खेल में

थे उतरया

म्हारै मन री राती घाटी

खेल-खेल में

म्हनै सूंप दी

थे थोड़ी-सी आली माटी।

म्हैं माटी ले

घड़्या खिलूणा

भांत-भांत रा सूं’णा-सूं’णा

छोटा-छोटा

मोटा-मोटा

यूं समझौ कीड़ी सूं हाथी।

जळचर

थळचर

नभचर नयारा

दीठ मांय आवै वै सारा

फूल-पांखड़ी भाखर भारा

बेटा-बेटी थारा-म्हारा।

देखौ-

म्हारा करतब देखौ।

म्हैं थांरी निरभ्रांत सहेली

दीखूं हूं म्हैं गैली-गैली।

स्रोत
  • पोथी : जातरा अर पड़ाव ,
  • सिरजक : सन्तोष मायामोहन ,
  • संपादक : नंद भारद्वाज ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी ,
  • संस्करण : प्रथम
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