दो आदमी आपस मांय बातां करै हा।

“बापड़ो जीवण तो जीवतो ही मरग्यो”।

“कैयां के हुयो बैरै”।

“बैरो बेटो हो नी के नाम रे...”।

“श्योदान”

“हां हां! श्योदान”

“जको के हुयो बैरै”

“जै’र खा’र मरग्यो”

“हैं! जै’र खा’र मरग्यो”

बै तो बापड़ा बात करै ही हा कै बीच में एक तीसरो

ही आदमी बोल्यो।

“बैरी किस्मत चौखी ही जको कीं खा’र तो

मर्‌यो हैं, म्हारो फूसियो कीं खायां बिना ही मरग्यो बापड़ो”।

दोनूं जणा आंख्या फाड’र बीच मांय बोलण आळै

खानी देखण लागग्या।

बो भाई तो इत्तो कै’र उठ’र धोती झाड’र एक खानी टुरग्यो।

अर बै दोनूं कई ताळ सोचता रैया।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत मार्च 1981 ,
  • सिरजक : ओम पुरोहित ‘कागद’ ,
  • संपादक : महावीर प्रसाद शर्मा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
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