किरण अेक

घुस जावै

म्हारी अंधारी

कोठड़ी मांय'र...

बैमें चमक उठै

अणगिणत

रज-कण

हीरा-मोती सा-

जिकां नै

मुट्ठी में लेवण सारू

म्हारी नान्हकड़ी डीकरी

झपटा मारै

उछळै

पड़ जावै,

उठती-पड़ती

मुट्ठी बंद कर'र

किलकै-नाचै-घूमर घालै,

पण जणै

मुट्ठी खोलै तो

खाली देख'र

रोवै-माथो पीटै!

उणनै इयां करतां देख

आवै बिचार-कै

जुगां सूं

दुसराई जाय रैई है

आदमी री लालसा री

कहाणी।

स्रोत
  • पोथी : कवि रै हाथां चुनियोड़ी ,
  • सिरजक : लक्ष्मीनारायण रंगा