जोवूं थारी बाट

दिन रात तरसूं

म्हारै मनगत री पीड़

किण नैं सुणावूं।

थूं बूझा’र गियो

हाथ रै फटकारै सूं

म्हारै मन रो दिवलो।

फैरूं जग बैठयो हूं

प्रेम रो दिवलो

कितो भोळो है

म्हारो मन।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली लोक चेतना री राजस्थानी तिमाही ,
  • सिरजक : संदीप ‘निर्भय’ ,
  • संपादक : श्याम महर्षि ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी साहित्य-संस्कृति पीठ
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