नीचै सूं ऊपर तांई को,
अेडी सूं चोटी तांई को,
भीतर सूं बारै तांईं को,
कतनो ई
जोर लगा ले
यो जमानो।
पण
म्हारै तांई
मोल न्हं ले सकै।
जुग जुग सूं
लगा रयो छै,
म्हारी बोली।
पण बोली न्हं छूट री
म्हारै जश्या
केई ओर
आया
बक्या
अर
चली ग्या।
कठी ग्या?
म्हूं न्हं जाणूं।
वै सब
म्हारै जश्या हो सकै छै
‘म्हूं’, न्हं हो सकै।
वै तो आया ई
बकबा की खातर छा।
म्हूं न्हं आयो।
वै सब
म्हारी आडी
झांकै छै
टुकर-टुकर
वह दे छै,
‘स्साला बेवकूफ,
जमाने की रफ्तार
नहीं जानता’।
म्हूं सोचूं छूं
‘रफ्तार जाणतो
तो
आतो,
बकतो,
भाग जातो।
बरसां सूं
अेक ठाम पै
ऊबो छूं
हिंवाळा ज्यूं
अटल-अडिग।
म्हूं,
जमाना की रफ्तार न्हं जाणूं।
वै,
ठहराव की जोर न्हं जाणै
रफ्तार की लार
भागबा में
जोर की जरूरत कोई न्हं।