जीवण को जंजाळ तो
मृगमर्चिका सो
चालतो रह, छै
जस्यां-जस्यां सुपणां नं
पकड़्यो आस्यां-अस्यां
पंछी की नाईं
पंखा नं फड़फड़ा'र,
हाथां सूं दूर
अर
आख्या सूं ओझळ,
हो जांवै
आसमान मं,
फेर बी तो
मन रूपी तितळी
भांत-भांत कां फूलडा
पर विचरती फरै
साम, दाम, दण्ड, भेद री
नीति में
यूँही उळझी रह, छै,
ऊंडै काळज्या में अंतहीन
महत्वकांक्षा को रुख
रोप'र,
चालाकियां को
झूठो पाणी दे छै
सफलता को छोटो गेलौ
हेरती फिरै छै,
जीवण रो जंजाळ
अतनी कर 'र, बी
झूठी आस में
साँचो सुखः पालै
असी आस लगायाँ ही
जगत नं छोड़ 'र,
माटी में मिल जावै
मिनख कं लारां-लारां
बळ जांवे
जीवण को जंजाळ बी।