रूंखाँ का झड़ता पात देख
धरती नै घबरा
सूखती हथेळ्या सूं
मूंड़ो ढाँकल्यो।
काळज्या की कोरों सूं
टकरातो लावो
भीतर को भीतर मचळ पड्यो।
झकझोरा
ताण'र लागबा लागग्या।
बड़ा-बड़ा रूंख
अरड़ा'र गर पड्या
पण
म्हारा अंगणा के बीचूं-बीच
दादाजी का रोप्या
तुलसी'र
मरवा
हाल भी लहरा रिया छै
मस्ती मै झूम'र।
याँ का प्राणाँ मै
अकूत बळ छै॥
जाणग्या छै यै-
डर,
चन्ता;
घबराहट-
शंक्या-
सब नै झटकार'र
काळ को मूँडो चरड़ा'र
नसंक अर नरदन्द हो'र
ढ़ाई घड़ी को जीबो।
आपणे लेखै नै
औरों के लेखै जीबो॥
जीं नै देख्याँ
धरती मुळकावै
अर
गगन गीत गावै।
अस्यो जीबो-साँचो जीबो।।
चोखो जीबो!