देस्या मायड़ नै दोष, उजाड़ै क्यू है कोख, झुर-झुर रोवै लाडकड़ी

कांई म्हासूं हुयो रै कसूर, बताता तो जरूर झुर-झुर रोवै चिड़कली

भेळी होय दादी ताई, सगळा मिल बात बणाई,

मोट्यारा धारी मुरदाई, मूछयां रै घाणियां झुकाई मूंछड़ली,

झुर-झुर रोवै चिड़कली।

मायड़ रै गळै भर बांथ, पूछती मनड़ै री बात,

हरदम रहती साथ, नहीं भुलाती दिन रातड़ली,

झुर-झुर रोवै चिड़कली।

पारधीयां दियो विष-विश्वास, अब जीवण रो नहीं आस,

किण आगै करूं अरदास, घर आगै आई रै गाडड़ली,

झुर-झुर रोवै चिड़कली

उड़ग्या सगळा रा होस, दादोजी नै आयो जोश,

झोळो लिन्यों खोस, नहीं मारण देवां रै धीवड़ली,

राजी होगी चिड़कली।

सुणल्यो नर-नार, बांता लेवो रै बिचार,

कियां बढ़सी परिवार, नहीं मारण देवो रै धीवड़ली

सुख सूं सोवै चिड़कली।

नहीं देवां मायड़ नै दोष, उजाड़ी कोनी कोख

सुख सूं सोवै कोयलड़ी॥

स्रोत
  • सिरजक : मातु सिंह राठौड़ ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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