घणी ही बाट न्हाळी

गेलो देखताँ-देखताँ

आँख्याँ पथरागी

जद जा'र

ऊगैणी मै करण फूटी।

पद्मा का पद्माँ मै

मस्ती सी छूटी।

अर करी

ज्यूँ ही,

मुळकबा की त्यारी...

कै,

रोस मै भरी पछवा

लागी खटबा

उड़ा'र लाई डूंगर

उधार की रेत को,

ढ़ंकग्यो-

घूंधळो सो उजास,

फैलगी अँध्यारी।

पद्मा का धोळा पाणी मै

घुळगी

टूट टूट'र

तड़का की ललाई।

फेरू भी पद्मा ले री छै

अँगड़ाई पै अँगड़ाई -

लहराँ पै लहराँ॥

गळबा लाग रियो छै

रेत को डूंगर।

मुड़बा मै छै

पछवाई पीर

खुल'र रह सी

उजास को पोटळो!

सात घोड़ों का रथ सूं

दमक'र मानैगो

सूना की धरती

अर

खुल ज्यागी

चमक सूं

हाल ताणी मुंदी

कोचर–हाँसी

जगती की आँख्याँ॥

तो,

देखैगी वै-

पद्मा को

कळकतो पाणी

अर

मुळकता कँवळ्या

मुळकतो मूंडो।

पघळैगो ताप सूं

होठा जम्यो पाळो

फूटैगा बोळ...

जैय पद्मा-जै बांगला!

जैय पद्मा-जै बांगला॥

स्रोत
  • पोथी : थापा थूर ,
  • सिरजक : गौरीशंकर 'कमलेश' ,
  • प्रकाशक : ज्ञान-भारती प्रकाशन, कोटा ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण