कविता री दो ओळ्याँ बाँच’र

जे कठैई मांय

भावाँ रै दरियाव में

भभको नीं ऊपड़ै

ज्वार-भाटो नीं आवै

तो किण रो दोस?

पंखीड़ा टहूकता रैवै

अर पून रै सागै

उणा री बंतळ अर गोठ नीं होवै

तो किण रो दोस?

थारी पीड़ नै

झळझळती कलम री अणी सूँ

कागद रै काळजिये उकेरूँ

अर बो नीं होवै आकळ-बाकळ

तो किण रो दोस?

मून रा बगबगता पाँवडा

ईं कूँट सूं बीं छेड़ै तांई पसर ज्यावै

अर समूळो नगर

गैरा खरड़ाटाँ रा खंदेड़ाँ में

हुय ज्यावै गरक,

घर रा बारणा तकात

घरधणी नै ओळखण सूं नट ज्यावै

बारणै बाजती

कड़्याँ अर सांकळाँ री थपाटाँ सुण’र

जाणै सुपनै में बिलम्योड़ा रैवै

घर रा रैवासी

तो किण रो दोस?

किण नै

कीं कैवण री बात कोनी

म्हारा बीरा

बगत इसो है

अब तो

नगराँ-बड़नगराँ री

एकूएक गळ्याँ-गवाड़्याँ में

बगत सूत्यो पड़्यो है

काल यवन री दांई,

भळै कानूड़ो

ओढाड़ दीनो है उण नै

आप रो पीताम्बर

जे अबै सरवोपमान विराजमान

मुचकुंदजी म्हाराज आकळ-बाकळ हुवै

तो हुवता रैवै

अे म्हाभारत तो इयाँ चालसी!

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत ,
  • सिरजक : रामनरेश सोनी ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
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