मिनख मोकळो सगतीमान,

हुवै कदै जद बो लाचार।

तद मिनखां नै तारण सारू,

म्हैं जग मं लेवूं औतार॥

पण माणस करणी सारू,

मन मं क्यूं नीं करै बिच्यार?

पुरसारथ सारू आयो,

कांई कर्यो बो जग मं आ'र?

पुरसारथ माथै सूं माणस,

खो दियो खुद रो विस्वास।

साधन हू'ता नंई आस्था,

मिनखपणै रौ हुवै विनास॥

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत ,
  • सिरजक : देवकरण जोशी 'दीपक' ,
  • संपादक : डॉ. भगवतीलाल व्यास ,
  • प्रकाशक : राजस्थान साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
जुड़्योड़ा विसै