कुंवारपणै में कैई दाण सुण्या

अे दो बोल, परायो धन।

पण कदैई समझ नी आयो

बेटियां क्यूं होवै है परायो धन।

भाई रो थाळ

परुस्यो जावतो पेल्या

म्हैं खावती पछै।

भाई री थाळ में होवतो

गचकच्यो परांवठौ,

म्हारी थाळ में

सिरफ चुपड़यो फुलको।

भाई नै मांग्या पेली मिल जावती

हर चीज म्हनै मांगवा पछै भी मिलती

सिरफ सबुरी री सीख।

जद व्हैती राड़

भला ही दोस व्हेतो भाई रो

जद देखती दूजभांत

म्हनै पढ़ायो जावतो समता रो पाठ।

तो काळजे उठती हूक

कै कांई फरक है?

म्हारे भाई रे अवतरण में

कै विण वास्ते अतरी अपणायत

म्है परायो धन।

जद पधारता हा भुवासा सासरा सूं

दातासा जावता वारी-वारी

लावता वणारी मनचावी चीज

कस्बा री हाट सूं।

बंद ओवरा माय खुलतो वो बगसो

कुंचियां जिणरी टंगी रेवती

दादीसा री दसा री वेळ में।

जद उंडावता हा दादीसा

भुवासा री खिचड़ी में घी

मां सा काकीसा री

आंख्या सूं बचा' र।

विद उठतो हो

म्हारे न्हांनै से मन में सुवाल

कै ये पण इण घर री बेटी

म्है पण इण घर री बेटी

फेर क्यूं लागे ये अतरा व्हाला,

म्है क्यूं लागूं परायो धन।

अर फैर एक दिन बंद ओवरा माय

म्हारे साम्है भी खुलग्यो

दादीसा रो बगसो।

अर माय सूं निकळी

वा कश्मीरी शॉल

जो लाया हा वे वैष्णोदेवी सूं।

वो पाणी रो बादळ

जो लाया हा वे अमरनाथ सूं।

वे लाख रा कातरिया

जो लाया हा वे गळताजी सूं।

अर केई भांत-भांत री चीज वस्त

जो म्हारे वास्ते जोड़ रया हा वे

अठारा वरसां सूं।

जद छुट्यो बाबोसा रो आंगणो

विद जाण्यो के बेटिया ने

क्यूं केवै परायो धन।

जद आई पगफैरा पे

मायत उंडेल न्हाख्यो सगळो हेत

जो संजो' राख्यो हो वणा

म्हारै जनम री पेल घड़ी सूं।

अबे दादीसा

म्हारी खिचड़ी में पण उंडावै घी

काकीसा भाभीसा री

आंख्या सूं छिपा 'र।

अबे जद करे न्हानो भाई राड़

दातासा लेवे म्हारो पख

वास नी बसेला थारै घरां

जावेला परी चार दना री पावणी

छोरी है परायो धन।

पण जिण दिन

म्हारी झोळ्या में आई धिवड़

काळजे उठी हूक के

इणने तो जावणो है पराये घर

राखणा है पराया मायतां रा तोक

संवारणो है परायो घर-आंगणो

बढ़ावणी है पराई वंशवेळ

अंतस सूं निकळग्या से अे बोल

म्हारी धिवड़ी

थूं है परायो धन।

मायत पाळै है काळजा री कोर ने

मान, पराई अमानत

राखै है काठ हिरदो

पढ़ावै है समता सबुरी रा पाठ

ताकै वा निभा सके

पराया घर री हर रीत भांत

बगैर उठाया कोई सवाल

पराया घर में राख सके

मायता रो मान

अर खुद रैह सकै सुख चैन सूं।

क्यूंक मायता नै घणो व्हालो लागे

यो परायो धन।

स्रोत
  • सिरजक : अनुश्री राठौड़ ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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