होळी नो तैवार है आजे,मस्ती नो तैवार।

नाचैं कूदैं गायैं मनखं,हैये हेत अपार॥

घेरे-घेरे थकी मामेरं, भैगं करैं गैरिया।

मुहर्त'ए होळी पळकाब्बा,गोठियां हेत्ता नैरिया॥

पळकी होली फैलंणी, च्यारी आड़ी ज़ाळ।

नानं-मूटं हत्त मनखं, होली पूज़वा जाहैं।

छौरं ढूंढाड़ैं तैई वगत, आदमी बइरू पाहैं॥

मज़ो आवे खूब गैरियं ने, देते होली गाळ।

नवं रंगीलं छैतरं पैहरी, पूगैं होली चौक।

हाथ मय गेर ना डंड़ा हादा, ज़ैने-ज़ैने शौक॥

रमी र् या हैं गेर मगन थई, नथी मन मय खार।

रंग नो डाबो बाल्टी पाणी, आवी है धुलैटी।

घणी बाइये तो टाड़ नी घोर मय, हंपाई नी बैठी॥

हाई एणं ने नाख्यू पाणी, चौप्ड्यो रंग वदार।

मूमरी भजियं लाडू, जलेबी, मीठाई-पूड़ी खावैं

रंगों नौ तैवार गामं मय आवी रीत'ए मनावैं॥

तण दाड़ा आणंद मय नैखरैं, भूलैं वैर विच्यार।

स्रोत
  • सिरजक : विजय गिरि गोस्वामी 'काव्यदीप' ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
जुड़्योड़ा विसै