म्हारा डीलड़ा को कांई

लत्ता पहणू कै न्हं पहणू

आज राजपथ पै नागतणा को होग्यौ

फेरु बी थांरी आतमा ओढ्यां रही दुसाळां...

ओढ्यां रही तो ओढ्यां रही

म्हारा कंठ को कांई

आज खुद को मूत गटकल्यौ थारै साम्हीं

कतनाई लटकग्या फंदा पै

फेरु बी न्हं टूटी थारा सिंगासन की मून

न्हं टूटी तो न्हं टूटी

राजा कै न्हं

जनता का नांव की हचकी

न्हं चाली तो न्हं चाली!

म्हारा जीव को कांई

अेकलो होतो तो लटक जातौ फंदे

पण आपणै हाथ

औलाद को मण्यौ

न्हं मसक्यौ जावै कांई करूं?

फेरु बी पड्यौ छूं थारै सरणे

जरा-सी आस कै पूंछड़ै

म्हारी पीढ्यां को कांई

खपगी जाणै कतनी

होगी गार भैळे गार

थारी बी तो कसी न्हं कसी

पीढी नै तो कुराळी होगी गार

फेरूं बी...

भाटा ज्यूं होग्यौ थारौ काळज्यौ!

म्हारी बातां को कांई

कदी मुट्ठी भर गार उठा जै खेत की

अस्यां लागैगो जस्यां

म्हारी पगथळी को छालो

आपणी नरम हथैळी पै धरल्यौ होवै।

स्रोत
  • सिरजक : ओम नागर ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोडी़
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