दिवला!

थूं डरपे मती

जळतौ रहिजै जगर-मगर

अर

तिमर नै रहजै तोड़

अवनी सुतां रै

उर में भरतौ रहिजै उजास।

मही री माटी मथ नै

घड़तौ थनै कुंभकार

आपरै आपै रै अपांण

घणी खांवचाई सूं

चाक रै चकरियै चढाय

इणरौ भरोसौ कामय राखण

घर-घर में बिकतौ रहीजै

म्हारा वीर अर

अंधियारै नै दीजै चीर।

दिवला!

सुण लै म्हारा मीत

अजकालै

पवन चलै बदनीत

थारी जोत में रखजै जोर

अर

दीपतौ रहीजै भोर लग

अखन।

जाणै है जग -

थारै तळियै अंधारौ है

पण

जगती जद थारी जोत

जग नै करदै सैंचन्नण

क्यूंके

थूं है लिछमी रौ लाडकौ।

यूं इज बाती थारी बळती रेवै

अर

उण सूं बणतौ रेवै अंजन

जिणनै

आंख में सारती रेवै कांमणियां

कर-कर कोड।

स्रोत
  • सिरजक : भंवरलाल सुथार ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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