जह ही है जीवण

जुगती रौ जथारथ

भोगतौ रेयौ

मरुधरा रौ मिनख।

जळ रा जाझा जतन करतौ

मरु मिनख-

खिणता नाडी-नाडियां

बेरा-बावड़ी अर तळा

आपरी तिरस बुझावण सारू।

तळा!

थांरी मैमा अपंरपार

थनै खिणणौ कित्तौ

अबखौ काम

पूठी-दर-पूठी

उतारता बेकळू रेत में

मिनख आपरै आपै रै आपांण

अर पूग जावता पिंयाळ

भाटां रा थर फोड़नै।

साठ पुरस ऊंडौ खोदणौ

अर जळ जोवणौ-

इतरौ आंझौ काम

मरु मिनख कर सकै

किणविध बारै आती रेत

कीकर ऊंडा उतरता मिनख

उणां रौ जीव जांणै।

इचरज तौ हुवै

इत्तौ ऊंडौ खोदियां पछै

ऊपर सूं देखियां

मिनख रौ काळजौ कांपै

उण रै तळियै

कीकर पूगता रांघड़

खान करण सारू।

थारै माथै लाग्योड़ौ रैवतौ

जीव-जिनावरां रौ जमघट

तौ मिनखां रौ मेळौ

व़ाकळ जळ भरण सारू

केई पंथियां नै पायौ

थूं निरमळ नीर

कोठा अर खेळियां भरीजी

थारै अथंग ऊंडै नीर सूं।

थारी ऊंडाई री

ठाह इण सूं पड़ै

‘लोयण तौ लखता नहीं

थारै तळियै हंदौ तोय’

जिणनै सींचता

मिनख, बळद अर

ऊंटां रा बेळा सूं

पणिहारियां रा घट भरीजता

तौ केई पखालां भरीजी

थारै निरमळ नीर सूं

दिन-रैण भमतै भूण रै आसरै।

काळै कोसां अळगां सूं आवती

माथै माटा मेल लुगायां

आपरै झूलरै साथै

जळ भर ले जावती

थारै पिंयाळ रौ

घरै पीवण अर

आया-गयां नै पावण सारू।

धिन है थारी जात नै तळा

कितां री तिरस बुझाई थूं

खुद अंधारौ भोग नै।

स्रोत
  • सिरजक : भंवरलाल सुथार ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
जुड़्योड़ा विसै