म्हैं बोल्यो-इयां कियां जमानो बदळसी?

बो बोल्यो-शिक्षा, संस्कृति रो मान बधसी,

लोग आपरा लोगां नैं छोड़, दूजां री सुणसी

झूठ पाखंड सूं अळगा होय’र साचां-झूठां रो भेद करसी,

साधकां रो मान बधसी, लंपटां रा भाव घटसी

जात-पांत रो रोळो-बेधो, अतीत में जा रुळसी,

लोगां री सोच बदळसी, सांच सरम रा भाव बधसी

सत्ता सारू भाजणियां रो, जनता मूल्यांकन करसी,

मंदिर-मस्जिद सूं बेसी लोग, न्यायालयां री सुणसी।

म्हैं बोल्यो-इयां कियां जमानो बदळसी?

बो फेरूं बोल्यो-सत्ता रा भूखा फनफनियां रो जस घटसी,

राजनीति रो निर्धारण जनमानस करसी

सत्ता रा लालची खिलाड़ी, आपरी मौत मरसी,

चमक-धमक अर प्रचार-प्रसार रै लारै भाजणियां सूं

जनता अपणै आप निपटसी,

जोड़-तोड़ करण आळां नैं साचां सूं अळगा करसी

मूल्यां री राजनिति बधसी, रोळियागट आपै ही घटसी,

जनता भेड़चाल नीं चाल’र विकास अर देखावै में अंतर करसी

नीं तो नूंवी पीढ़ी रा टाबर, पुरखां रो नीं मान करसी,

चोखो जमानो जरूर आसी, रोक्यां भी बो नीं रुकसी

सुराज रो सपनो, सांच रै नेड़ै जावतो दिखसी,

मन नैं समझायो, इण सूं जमानो जरूर बदळसी।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली ,
  • सिरजक : गिरिजा शंकर शर्मा ,
  • संपादक : श्याम महर्षि ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी साहित्य-संस्कृति पीठ
जुड़्योड़ा विसै