अमावस नुं अंधारू खोवाये, जारै आवे दिवारी

पण कैवी...

...आज दिवारी, काल दिवारी,

खोवाई ग्यो म्हूं दिवारी तारू अजुवारू होंदते-होंदते

रामचंदरजी नी दिवारी...

नती मांड़तू कोई अवे गोरधन जी

क्यं है अवे सांण, क्यं हैं हांटां

क्यं रूई नै क्यं दीवा

सब...क्यं, केई मेर!

दीवड़ा अे न्हें पूर्‌या कैणें अवे

वाट जौतू रई ग्यू नदी नुं पाणी

सरमाई ग्या हूरज बावसी

भूल्या मानवी हंगरा, हंगरी रीत

कैवी दिवारी, कैवी ?

आज दिवारी, काल दिवारी

पमणें दाड़े राजा राम नी दिवारी, मेऽरियूऽऽऽ।

काठ थई ग्या हो के रामचंद्र जी

अेकला-अेकला रामचंद्र जी...

आवो तमें’ज न्हें पूरो मेऽरियूऽऽऽ महारू,

तमारे हारू, रामचंद्र जी

तमें’ज आवो खोट्टं ना वेच थकी

पूरो तरै कयं थाये अजुवारू

रामचंद्र जी तमैं, म्हूं नै मेऽरियूऽऽऽ...

आवोने पूरो मेऽरियूऽऽऽ

अणां कलजुग मअें

ओ। रामचंद्रजी।

स्रोत
  • पोथी : अपरंच ,
  • सिरजक : शैलेन्द्र उपाध्याय ,
  • संपादक : गौतम अरोड़ा ,
  • प्रकाशक : अपरंच प्रकाशन
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