आज फेरूं एक साल बाद

म्हारै घर री भींत्यां पर

जगमग करता दीवला—

भटन-भटन करता पटाखा

म्हारै हिरदै नै—

चाणचकै ही हिला देवै।

...तो आज है दीवाली

जिकै री उडीक हूं रोजीना करूं,

भूखै तिस्सै मिनखां नै देख—

चुपचाप सिसकारा भरूं।

हूं चावूं हूं कै काळ रै भागीरथ नै

किंयां ही मना ल्याऊं

हर हालत में टीबां री धरती में

अेकर फेरूं गंगा लै'र आऊं,

पण आज! आभै री गंगा—

धरती पर उतरण नै त्यार कोनी

अर पाताळ में किंयां जावां?

रास्तो आर-पार कोनी।

तो बात पुख्ता है कै—

सगळा जियां है बियां ही रैसी

सैंग मिनख आप-आपरै

भाग रो ही खासी।

पण पागळपण री भी हद हुवै है

अर हूं इणस्यूं भी आगै बढ़ग्यो हूं;

कठी तो पड़्यो है खुशी रो खजानो—

इयै उमंग मैं घणो ऊंचो चढ़ग्यो हूं।

ऊंचाई पर जांवती निजर्‌यां नै—

टिमटिम करता दीवळा कैवै—

“मत डर भाया चिन्त्या छोड़—

अग्यान स्यूं लड़-भाग नै जोड़”।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत जून 1981 ,
  • सिरजक : हरिदास हर्ष ,
  • संपादक : राजेन्द्र शर्मा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
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