कालजिया री कोर कँवरी सासरे चाली

दायजा रा लोभी दुष्टां जीवती ही बाळी

जनम हुयो जद छायो हरख अपार

बाबोसा बोल्या है लिछमी आई अपणे द्वार

दीप संजोयां अतरा ज्यूं आई दीवाली

नेह नीर सींच सींच मोटी करी डाळ

वर ने वां सूँपी देख'र देह रो उछाळ

खिल्याँ बिना खिर गई फूलां री डाळी

कंकुपगल्या धरतां—धरतां पूगी सासरे

हिवड़ाँ में हेत लियां मन में आस रे

पूनम री रात बणगी मावस काळी

सगळो समाज मिल करो थे उपाय

घर री या लीछमी ईं'नै बाळो मती लाय

घर री लीछमी बाळ्याँ कियां आसी खुसहाली।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत मार्च-अप्रैल 2007 ,
  • सिरजक : श्रीमती विजयलक्ष्मी देथा ,
  • संपादक : लक्ष्मीकान्त व्यास ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
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