बिरछ रा पानका झड़ै

नया फूटै

नुवों जीवण बापरै

हर साल

बसंत बां नै

फूलड़ा टूठै।

जूनां झड़ै

जा पड़ै दूर होज्या खात,

पण मिनख री जात

बै पुराणा पग

पुराणा हाथ

पुराणो तन

पुराणो मन धार्‌यां अड़ थड़ै

जूनी जुगादी बात,

आखी उमर

आखा दिन’नै आखी रात।

कठै सूं बापरै बदळाव

फेर इण भाव

कठै सूं कूंपळां फूटै‘र विकसै फूल

कठै सूं महक फूटै?

आंगणो भरज्या।

कठै सूं बापरै सीळक

कै जुग री आतमां ठरज्या।

स्रोत
  • पोथी : बानगी ,
  • सिरजक : मोहन आलोक ,
  • प्रकाशक : बोधि प्रकाशन ,
  • संस्करण : प्रथम
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