नींद कै तांईं

रुक्मणि की नाईं

उचाट'र,

ले ग्यो हंसा ज्यूं उड़ा'र,

देखतां देखतां ईं

जस्यां आँख्या मं सूं

काज़ळ खाँड़ ल्यो छो

कान्हा नै,

म्हारी आँख्या की

परिधि सूं खड'र,

कोसां दूर तांईं

थांरी पलकां का चादरां नै

ओढ़'र

सरडां- सरडां

सो री छै म्हारी नींद,

सुण!

थू थौडो तो चेत

अस्यां कस्यां खड्गी

जिंदगाणि की

सारी की सारी रातां

अस्यो बी काईं

कह ग्यो थू,

नींद का कानां मं

जो थांरी लारां ईं होंगी

थन्है ज्यो चावै वांईं लै

पण दिनं को चेन,

अर राता की नींद

पाछी दे जा रे।

थूं तो कृष्ण सूं बी

ज्यादा बड़ो छळियो

खड़ग्यो।

छळिया!

स्रोत
  • सिरजक : मंजू कुमारी मेघवाल ,
  • प्रकाशक : कवि रै हाथां चुणियोड़ी
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