एक बाणियों

दिन भर दुकान मांय

गाहकां रै झमेलै स्यूं निकळ’र

सामनै आळै

चा आळी दुकान रै बूढै डैण नै

दाकळ सी देंवता कैयो

मस्तान जी एक कप चावड़ो भेज्या

ध्यान राख्या पाणी ना हुवै।

मस्तान जी मूंडो उपरनै कर’र

अचम्भै स्यूं देख्यो

अर कई ताळ थम’र बोल्या

पाणी थे घलावो नईं!

दूध हूं घालूं नईं।

मांगीवाड़ै मांय खाण्ड कुण घालै॥

तो हूं बूझूं थानै कै—

चावड़ी के धड़ बणसी।

एक कप बणेड़ी री बजाय

एक लप सूकी चा—

कनी ले जावो आगा आर’र

जरदै री डब्बी मांय राख्या

खुद खाया अर

आया गयां री मनवा’र कर्‌या।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत जून 1981 ,
  • सिरजक : ओमप्रकाश पुरोहित ‘कागद’/ ओम पुरोहित ‘कागद’ ,
  • संपादक : राजेन्द्र शर्मा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
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