आजा रे म्हारा चांद सैलाणी, थारी म्हूं मनवार करूं,

सरद सलूणा ईं मौसम में, सूनी आंख्यां चार करूं॥

म्हूं धरती पे दमनी डोलूं, तूं बासी, आकासां को,

कुंण सूं मन की घुंडी खोलूं, कस्यां भरै मन प्यासां को,

आ! डागळिये झालो दे तो, म्हूं सोळा सिणगार करूं॥

आजारे म्हारा...

रूप चांदणूं अमरत पी के, थोड़ा दंन जीबो चाहूं,

दरसण का पगळाया मन नें, कस्यां-कस्यां तो समझाऊं,

तू कहदे तो गीत सुणां के पायळ की झंणकार करूं॥

आजारे म्हारा...

पन्दरह दंन का अरे पावणां, क्यूं नरमोही बंण रह्यो रे,

तरसे छे म्हारा भी नैणां, म्हारी क्यूं नें सुंण रह्यो रे,

कतनी और अन्धारी रातां, आंसू की बौछार करूं॥

आजारे म्हारा...

थं नं देख मन को संमदरियो, उमग हलोळा खावे रे,

कस्यां आंतरो पार करे जद, सीमा में बंध जावे रे,

सूने मन्दर करे उजाळो, तो हिवड़ो न्योछार करूं॥

आजा रे म्हारा चाँद सैलाणी थारी म्हूँ मनवार करूं॥

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत अगस्त 1980 ,
  • सिरजक : प्रेमलता जैन ,
  • संपादक : सत्येन जोशी ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
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