बीं दिन
सिंझ्या पड़्यै
सरपंच साब रो छोरो
घरै आयो
बो जाणतो हो कै
म्हैं लेखक हूं अर हूं बेरुजगार भी
आंवता ई बोल्यो
भाईजी अेक काम है थांसूं
हूं कालै मजदूर यूनियन रै
जळसै में सामल हुयसूं
तो भासण वास्तै
कोई सांगोपांग कविता मांड’र द्यो
भूख अर बेरुजगारी माथै
म्हैं दिनूगै आय’र
लेय जायस्यूं
अर घबराजो मत
थांरो मैणतानो जरूर मिलसी थांनै।
म्हैं बीं नैं कैयो-
काम तो हुय जासी पण कीं
पेसगी तो देयज्या भाई।
आ सुण’र
बो ताचक्यो-
क्यूं पेसगी बिना काम नीं होवै के थांसूं
इत्ता बड़ा कवि हुयग्या कै
ज्यादा बड़ा मत बणो ना।
म्हैं बीं नैं समझायो-
बावळा भाई,
ना तो म्हैं कोई बड़ौ कवि हूं
अर ना बणणै री आफळ है
पण बात आ है कै
म्हीनै भर सूं बेरुजगार हूं
अर लारलै दो दिन रो भूखो भी
अर खाली पेट
भूख पर रोईज तो सकै है
पण कविता नीं मंडै।