बापड़ी कविता

चौमासै, सियाळे, उन्हाळे

बिना माईतां रै टाबर ज्यूं फिरै है।

ऊभाणै पगां कादै में

कचपच होयोड़ी फिरै है,

अर मेह में भीज्योड़ी

छ्याळी ज्यूं फिरै है।

बापड़ी कविता

फाट्याडै पूरां रै

कारी लगावै

अर सीया मरती

अेक खूणै में पड़ी-पड़ी

दांत कटकटावै।

बिखै री मारी

इण ठंठार में पड़ी-पड़ी

आपरै करमड़ै नै रोवै है।

बापड़ी कविता

मझ दोपारी

भोभरतै टीबां में फिरै है

ताती लूवां री थांपा

खाय-खाय'र

आपरै तनडै नै झुरै है

अर बिना धणी-धोरी रै

डांगर ज्यूं फिरै है।

स्रोत
  • पोथी : मंडाण ,
  • सिरजक : महेन्द्र मील ,
  • संपादक : नीरज दइया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ,
  • संस्करण : Prtham
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