काल मलग्यो म्हंने,

अणा चूक ही

भूख का चौराया पे

म्हारो ‘म्हें’

कांधा लटकायां

समाज वाद को फाटों कोट,

अभाव की आग सूं

बळ’र पापड़ा व्ह्या सूखा होठां ने

चौड़ा कर बोल्यो

“जै राम जी की”

म्हारा “म्हैं” ने सामै देख

पैल्यां तो म्हूं चकरायो

पण संभळ’र

जै रामजी रो जुवाब दै

झट पट आगे कीदो आश्वासन को पान

विश्वास री बै’च पै बैठ

बळद ज्यूं बागोल्या दीन्यू

भवि’स रा सपना ने आंख्यां पे ओढ़।

स्रोत
  • पोथी : जागती जोत मार्च 1981 ,
  • सिरजक : राधेश्याम मेवाडी / राधेश्याम भट्ट मेवाड़ी ,
  • संपादक : महावीर प्रसाद शर्मा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी, बीकानेर
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