तमे मारे थकी हूँ अलग थ्यं

कोक अटपटू-अटपटू लागे

घोर खावा दोडे

कान मय हमराये

कोणेक भडाका फोडे

हैया ना कैयाक खोणा में

घडी नी आवाज दबीली थकी

हमराय

पण कैने कं

कं तो हेतो जमारो जागे

कोक अटपटू-अटपटू लागे...

अमारे दुःख नी वार्ता

कैया मनक ने हमरावं

हाँदी दिदा मारा हों

हरते अवे अमें गुनगुनाव

हों तैवेरे उगडेगां, मन ना मारा

जई वैरे कुणेक मने तवा करतो लागे

कोक अटपटू-अटपटू लागे...

पुंगी नी गूंज अवडे थकी

गुंजवा लागी है

मु हरते देकूं मारे मन वारी तनै

तमने जो दरद है हैरय तो

अमे वना दर्द ना ने जिवें

अवे तो मारू हैयू अजी बीतू लागे

कोक अटपटू-अटपटू लागे।

स्रोत
  • पोथी : वागड़ अंचल री राजस्थानी कवितावां ,
  • सिरजक : महेश देव भट्ट ,
  • संपादक : ज्योतिपुंज ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादनी बीकानेर ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
जुड़्योड़ा विसै