रामरख बाखळ में मांचै माथै बेठ्यो ढेरियै सूं जट्ट कातै हो। कनै होको पड़्यो है। बिचाळै-बिचाळै घूंट मार लेवै। इण कमताळी री रुत में जद किरसै नै खेत में होणो चाइजै, बो आपरै घरां बैठ्यो है। उण री भांत गांव रा दूसरा लोग भी घरां में बैठ्या है। करै भी कांई? खेतां में तो जा कोनी सकै। च्यार बरसां पछै अबकाळै कीं चोखी छांट पड़ी। खेतां साथै-साथै लोगां रा मूंडा भी हर्‌या होग्या पण ऊपर सूं जुद्ध रो खतरो पड़्यो। भारत-पाक अंतरराष्ट्रीय सीमा माथै तणाव बधग्यो। सींव माथै आयनै फौजां डेरा घाल लिया। राजस्थान में तो श्रीगंगानगर सूं लेय’र जैसलमेर तांई फौज फौज पड़ी है। जैसलमेर, बाड़मेर कानी तो कीं फरक कोनी पड़ै। ईं रुत में बठै कीं निपजै कोनी। बठै तो धोरा धोरा है पण श्रीगंगानगर सूं लेय’र खाजूवाळै तांई जठै नहरी इलाको है फसलां फसलां लैलावै ही। फौजां आयनै खेतां माथै कब्जो कर लियौ। खेतां में बारूदी सुरंगा (माइन्स) दाब दी। अैलान कर दियो कै कोई खेतां में ना बड़ै। ज्यान जाणै रो खतरो है। इण बारूदी सुरंगा सूं दुस्मण तो बेरो नीं कद मरैला फण किरसा तो आं रै बिन्यां चाल्या मरग्या। का’ल बो खेतां कानी गेड़ो लगाय नै आयो। कीकर रैयो जावै? उण देख्यो कै सरस्यूं फळियां सूं लड़ालूम! पक’र त्यार खड़ी है। अबै दांती घालल्यो बस! उणरै नईं अबकाळै घणखरै लोगां रै खेतां में सरस्यूं अर कणक री फसल खूब फळी है। पण फळ्यां कांई हुवै? खेतां में तो बारूदी सुरंग दबियोड़ी है। कुण काटै? फसलां तो परलै पासै पाकिस्तान कानी भी इयां खड़ी दीखै। बठै भी तो बारूदी सुरंगां दबियोड़ी हुवैली। बठै रा किरसा भी।

गांव रै घणखरै’क लोगां रै खेतां में बारूदी सुरंगां दबियोड़ी है। लोग खेतां में कीकर जावै? डांगरां तांई हर्‌यो चारो कठै सूं लेय’र आवै। सूकी तूड़ी खायनै पसु रो जीव सोरौ कोनी हुवै, इण कारण दूध भी तो कम देवै। आजकाल खाली बैठ्या लोग आखै दिन गवाड़ में तास खेलता रैवै। काम भी कां करै? जिकै दिनां गांव में दिहाड़िया कोनी मिलता बां दिनां लोग हाथ माथै हाथ धर्‌यां बे’ला बैठ्या है। पूरै गांव मे कोई दो-च्यार घर हुवैला जिकां रो काम कीं ठीकठाक चालै बाकी लोग तो बस लाव सूं जेवड़ो घसै। बांथो करै जिनगाणी सूं थोड़ा-भोत दाणा खाणै सारू भलां घर में पड़्या हुवै पईसो तो ज्हैर खावण नै कोनी छोटो-सो कोई काम पड़तां लोग मंड़ी में आपरै आड़तियै कानी भाजै, उधार पईसो लेणै खातर। आड़तियो तो आवणाळी फसल देख’र पईसो देवै। जद फसल कोनी आणी तो पईसो क्यां माथै देवै! खबर भी आई बतावै कै जिकै खेतां में बारूदी सुरंगां दाबणै सूं किरसां रो जितरो नुकसान हुयो है, सरकार उणरो मुआवजो देवैली! पण कद? किणनै बेरो कोनी। आज मरतां नै का’ल कद आवै? का बरखा जब कृषि सुखानै। लोग असमंजस में है। अठै गांव में लोग ऊपर सूं चाये धोळफूलिया दीखै पण मांयनै सूं सगळा थोथा है। च्यार-च्यार काळ! कांई बचै? काख उठायां काळज्यो दीखै।

“रामरख भाई! हेलो सुण’र जियां उणरी तन्द्रा भंग हुई।”

बोल्यो, “कुण है...? ...ओह! हरखो! आज्या भाई हरखा, होको पी लै! बैठ!” कैय’र मांचै रै अेकानी सरकग्यो।

“कीकर अेकलो बैठ्यो है?” हरखो मांचै माथै बैठतो-बैठतो बोल्यो।

“तो कठै जावां? तूं बता! म्हनै ना तो तास खेलणी आवै अर ना रे’ळ मारणी। फेर घरां नीं बैठूं तो कठै जाऊं?”

हड़-हड़ हांस्यो हरखो, “रे’ळ मारणी भी सीखणी पड़ै? म्हनै तो आज बेरो लाग्यो है।”

“खेर छोड! कीकर आयो? कोई काम तो कोनी?” रामरख हरखै सूं पूछ्यो।

“आवणो कांई भाया? कामसिर आयो हूं! पांच सौ रिपड़ा चाईजै दो महीना हुयग्या छोरी आयोड़ी है सासरै सूं। का’ल रो जंवाई आयनै छाती पर बैठ्यो है। छोरी नै लेवण आयो है थे बताओ! कीं तो तीवळ-तागो करवाणो पड़ैलो। छोरी नै खाली हाथ थोड़ी सीख देयद्‌यां। अठै भी बिच्यारी कैड़ी खाली बैठी रैयी है। फरज तो आपां नै पूरो करणो पड़ैलो।” हरखो अेक सांस में पूरी बात कैयग्यो।

“कठैई बण्या कांई रिपड़ा?” रामरख पूछ्यो।

“बण जाता तो थांनै कथा सुणाणै सारू कठै टेम हो..? सीधो मंडी जायनै गाभा ल्यांवतो! पण कांई करूं? किणी कनै रातो पईसो कोनी!”

“आड़तियै नै टंटोळ’र तो देखलै! पूरै बीस किल्ला रो धणी है तूं। देवैलो क्यूं कोनी? उणनै कमाई कोनी कांई? बाणियो ब्याज री कमाई सूं तो फळै-फूलै।” होकै रो सरड़को लगायनै रामरख बोल्यो।

“पांच-छव दिनां पैली खळ-बनोळा ल्यावणै सारू गयो। जद सेठ कैयो कै भाई हरखा..! लारली फसल रा अबै तांई पांच हजार बाकी पड़्या है। ब्याज अळगो। खेतां में अबकाळै थारै बारूदी सुरंगां लागगी। आप बताओ कठै सूं देऊं? ऊपर सूं कीं ना घाल्यो जावै तो कूवै रा कूवा रीत जावै। बरस्यां बिनां तो धरती जिकी मां है बा भी कीं फळ कोनी देवै। म्है तो टाबर-टीकरांळो मिनख हूं। का’ल नै म्हानै काम पड़ग्यो तो कठै जायसूं? बात कैयी सेठ तो।” इतरो कैयनै हरखो मून हूयग्यो।

“फेर..?”

“फेर कांई!” म्हैं कैयो, “थारी पाई-पाई ब्याज समेत चुकाऊंला। पण इण बगत थारै कनै नीं आवां तो कठै जावां..? टूट्यो पेट गोडां नै आवै। थारी मरजी है द्‌यो तो द्‌यो! ना द्‌यो तो ना द्‌यो! फेर उण म्हनै खळ-बिनोळा तो दिरवा दिया पण म्हारै में ओजूं उण कनै जायनै मांगण री हिम्मत कोनी। साची बात है भाई! सुरंग दबी है तो आपणै दबी है। बै बापड़ा कांई करै? बाळ-बच्चा तो बांनै भी पाळना है।”

इतरै में जोर सूं धमीड़ हुयो। दोन्यूं भाज’र गळी में आयग्या। दो-तीन जणा भाज्या जावै हा। अेक जणो भाजतो-भाजतो कैवै हो, “कठैई सुरंग चाली है! बेरो नीं कुण चपेट में आयो है?”

“लारलै डेढ-दो महीनां सूं खेतां में सुरंगां दबी पड़ी है। दूसरै-तीसरै दिन कोई ना कोई डांगर या मिनख लपेट में जावै। इलाकै में आठ-दस मिनख तो मरग्या अर पचासूं हाथ-पग गमायनै अपंग हुय’र बैठग्या। पसुआं री अठै कुण गिणती करण बैठै हो? बिच्यारा भूख मरता हर्‌यो चारो देख’र खेत में बड़ तो जावै अर...! पसु कांई? केई मिनख भी इण लाळच में मरग्या।” हरखो बोल्यो।

“साची कैयी! म्हारै कनै जैलाल आयो। बापड़ो पैलां तो कठैई खेतां में जायनै कार-मजूरी कर लिया करतो पण अब कठै जावै? कांई करै? म्हारै कनै आयो। कैवण लाग्यो, ‘भाई रामरख! थे कैवो तो म्हैं थारी सरस्यूं चोथै हिस्सै माथै काटद्‌यूं?’ पण म्हैं उणनै रोक दियो।”

“पण क्यूं..? थारा कांई कांटां में हाथ जावै हा?” हरखो बोल्यो।

“कांटां में हाथ? क्यूं आपरै माथै हत्या लेऊं! अै दबियोड़ी सुरंगां कदे तो चालणी है। उण माथै चाये डांगर या मिनख कोई पग धरै उणनै तो चालणो है। सुरंग दुस्मण आर मींल तो देखै कोनी। इण सूं किणी नै तो अपंग हुवणो या मरणो है। बात जाणता थकां म्हैं जैलाल नै आपरै खेत में जाणै री कीकर इजाजत देयद्‌यूं?” रामरख पड़ूत्तर दियो।

“अंधारै-उजाळै घणखरा’क लोग मौको मिलतां कदे सरस्यूं कदे कणक या छोलां रा भरोटिया बांध’र आपरै घरां लियावै। करै भी कांई..? मरता हाथ सिंवाळा घालै। पेट नै तो भख देणो पड़ै! मरणै रो डर है तो भूखो रैयनै जीणो कैड़ो सोरो है। इण मौकै अठै उधार देवै कुण है? बेरो नीं कद लड़ाई छिड़ जावै अर डेरो-डांडो उठायनै भाजणो पड़ जावै। जिकै री गांठ में दो पइसा है बो दाब’र बैठ्यो है। पून कोनी लागण देवै।” कैय’र हरखै लांबो-सो सिसकारो मार्‌यो।

“बात तो थे साची कैवो भाई..! पण म्हारै कनै तो जे सौ रिपिया हुवै तो सौगन लेल्यो। भगवान ना करै कोई आफत सिर पड़ै। कठै जावांला? कांई करांला? म्हनै तो सोच’र डर लागै।” रामरख आपरी सफाई दी।

“नईं-नईं म्हैं तो बात करूं। थारै घर री हालत म्हारै सूं कोई लुकियाड़ी थोड़ी है..!”

“अरै भाई याद आयो..!” रामरख चहक’र बोल्यो, “थारो काम तो बण सकै। म्हैं लारलै महीनै थारी भाभी तांई अेक तीवळ लेय’र आयो साढे तीन सौ रिपिया लाग्या। म्हैं तो आपरी समझ में फूटरी देख’र ल्यायो। छोरी नै दिखा दे। दाय आवै तो राख लिज्यो। अेकर काम तो निकळै, पछै पईसा आंवता रैवैला।”

रामरख री बात सुण’र हरखै रै मूंडै माथै अेकर चमक-सी आई पण पाछी बुझगी। बोल्यो, “ना भाई! भाभी कांई सोचैली? ल्यायोड़ा गाभा लेयग्यो।”

“सोचैली कांई! सगळां रै घरां में माटी रा चूल्हा है। म्हारै कैड़ी तंगी आवै आज हम्मा तो का’ल तम्मा। इणमें सरम री कांई बात है? छोरी नै आपरै घरां मे’लणी है। पसंद जावै तो राख लेवैली। मन में कोई गिरगिराट ना करो।”

“पसंद-नापसंद री भली बात कैयी भाई रामरख! अणबणी रो कांई मोल हुवै? म्हनै तो इयां लागै हो जे म्हैं तीवळ नीं ल्या सक्यो तो कठैई कूवो-खाड करणो पड़ैलो। कांई मूंडो दिखाऊंला छोरी नै।” हरखो गळगळो सो हुयग्यो।

“आपां तो बातां में बिलमग्या।” रामरख बात बदळी, “देखां तो चाल’र कांई हुयो..?” इतरो कैय’र दोन्यूं खेतां कानी चाल पड़्या। गांव सूं तीन-च्यार मरबा दूर अंतरराष्ट्रीय सींव है। जठै दो देसां नै अळगा करणाळी कंटीली बाड़ है। परलै पासै पाकिस्तान कानी भी लोग खेती करै। बठै रा किरसा भी नरमो, कपास, बाजरी, जुआर, कणक, सरस्यूं बीजै। आपणै भी अै ईज फसलां हुवै। मेह भी दोन्यूं कानी साथै बरसै। काळ पड़ै तो भी छानो कोनी रैवै अर समै री बात तो बटोड़ा बता देवै। अबकाळै दोनूं कानी समो हो पण दो देसां बिचाळै तणाव पैदा हुयग्यो, कुण करै तणाव पैदा? ना अठै रा किरसा जाणै अर ना सींव पार आळा। दो देसां बिचाळै तणाव पैदा हुवै जद बचाव तांई सुरंगा लगाई जावै। बै जमीन सूं पैली किरसै री छाती में लागै। बो भलां कोई देस अर कोई काल हुवै।

रामरख अर हरखो आगै बधता जावै हा। बांनै राह में मुड़ता च्यार-पांच गांवआळा मिल्या। अेक जणै बांनै बतायो, “सुरंग पाकिस्तान कानी पाटी है। अेक फौजी बतावै हो। कोई किरसो लुक’र आपरै खेत में सरस्यूं काटण सारू आयो। चीथड़ा-चीथड़ा होय’र खिंडग्यो। मांस रा लोथड़ा सींव सूं पार हुयनै आपणै कानी भी पड़्या।”

“अच्छ्या!” केय’र हरखै सिसकारो भर्‌यो। सोचै हो स्यात उण बिच्यारै रै घरां भी छोरी लेवण तांई जंवाई आयो बैठ्यो हुवैलो। नीं मिल्या हुवैला उधार पईसा। म्हनै तो रामरख भाई तीवळ दे दी पण सगळां नै मिल जावै, जरुरी है कांई?

स्रोत
  • पोथी : इक्कीसवीं सदी री राजस्थानी कहाणियां ,
  • सिरजक : मंगत बादल ,
  • संपादक : मधु आचार्य 'आशावादी' ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली ,
  • संस्करण : प्रथम
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