“इण सूरदास रो अर थारो म्हारै सूं तो को पेट भरीजै नीं। आप-आपरो कमावो अर खावो।” हरफूल कीं आकरो होय बोल्यो।

“ओ सेको तो म्हारै सूं इज को पार पड़ै नीं। म्हारै भरोसै थे नचीता ना रहीयो चायी?” बीरबल इज फैसळो सुणा दियो।

“पछै थानैं क्यांबेई म्हैं पाळ्या-पोस्या। क्यूं थारी मां थारा आला-सुका कर्‌या। जे थे मां-बाप नैं इज रोटी नीं घाल सको तो थारो जीवणो धिक्कार है।

अर पछै बिचारो तो सूरदास। कीं दिखै नीं अर कीं भाळै नीं। म्हे तो कीं दिनां रा हां, घणा दिन नीं काढां पण कठै सूं कमासी कठै सूं खासी? कीं तो सोचो, थारो इज मायड़ जायो भाई है।” हरखो कीं गळगळो होग्यो।

“म्हे को जाणां नीं। म्हारै भावूं दरड़ै मांय पड़ो सूरदास अर ऊपर सूं पड़ो थे दोवूं।” हर

फूल कीं कसर को राखी नीं।

“ना लाडी, देखो सूरदास रो कीं हिसाब बठाद्यो। म्हारो कांई?....... ।”

हरखो ओजूं कीं आस लगायी।

“थे कीं पांती-पूळी करो हो’क म्हे धिगाणूं करां।.....” बीरबल इज के कमती रेवै।

“ठीक है लाडेसरो। थे तेवड़ली इज जद थानै कुण रोकै। पांती-पूळी कर देस्यूं। पण बात ठीक तो कोनी...... ।” हरखै निस्कारो न्हांख्यो। अर चिंत मांय पड़ग्यो।

हरफूल अर बीरबल आप-आपरो डेरो न्यारो सांभ लियो।

हरखो सोचै। घणो बगत कोनी हुयो बां बातां नैं। जद हरफूल, बीरबल अर सूरदास तीनूं गुडाळियां खेलता उणरै आंगणै। बडा हुया, की जेज लागी नीं।

बो जीवण रै उळझाड़ मांय उळझ्यो रैयो। ब्यावण-मुकलावण सारू बडा होग्या। बडो इज बडो सूरदास। जलम सूं दोनूं आंख्यां कोनी। छोटो हरफूल अर पछै बीरबल।

सूरदास नै छोरी कुण देवै। छेकड़ उण सूरदास नैं टाळ’र हरफूल अर बीरबल रो ब्याव कर दियो।

सूरदास गीत-भजन मांय रमै। जद सूरदास पेटी-बाजै अर तंदूरै री फरमाइस राखी तो हरखो द’र इज को नट्यो नीं। पेटी-वाजो अर तंदूरो आयां पछै सूरदास रै मौज। सगळै दिन उण नैं बिलम लाधग्यो। जीवण री पेड़ी मांय बो आपनैं अेकलो की मानै नीं। राम रा नाम लेवै अर सो’रै सांसां टेम काटै।

पण इब.... हरखो के करै? उण री सरधा इती कोनी कै बो कमा सकै। जमीन पांती करयां पछै इती इज कै उण री फसल सूं पेट को भरीजै नीं। काळ-दुकाळ ऊपरां सूं न्यारा रेवै।

छेकड़ बो गांव रै दरी-बोरां रै कारीगर पूरणसिंघ कन्नै पूग्यो- “कीं कातेडै सूत-जट अर लोगड़ रा मोइया-माइया सुळझावणै रो काम हुवै तो बुलाय लेयी।”

“आ के कैवो हो ताऊ?” उठ’र पूरणसिंघ हरखै नै मूढो ल्यार दियो। बूढै-बडेरां रो पूरणसिंघ सदीव मान राखै।

“हां पूरणां, कीं दो पीसा मिलज्या जो म्हारो अर सूरदासियै रो धाको धिकज्या।” हरखे पीड़ बतायी।

“ना ताऊ, इब उमर थोड़ी इज रैयी है थारी काम करण री। सरीर सगळो धूजण लागग्यो। आंख्यां सूं इज कमती दिखतो होसी?” पूरणसिंघ हरखै रै हाथ मांयलै हालतै गेडियै कोनी देखतां थकां कैयो।

“के करां लाडी। हरफूलियो अर बीरबलियो तो देग्या तड़ी। आप आपरो पासो पकड़लियो। इब पेट तो भरणो इज पड़सी। भूख बैरण तो दोवूं टेम मतोमत लागज्या।” हरखै रै दुख बापरग्यो अर कीं आसूं आग्या।

“ना ताऊ, मन छोटो नां करो। ईयां करयां के पार पड़ै। भगवान चांच दी है तो चुगो इज देसी।”

“........................।”

थे ताऊ, ईयां करो सूरदास नैं म्हारै कन्नै घालद्यो... ।” पूरणसिंघ की सोच’र केयो।

“बो के करसी...... ।”

“ताऊ बीं रै कन्नै सूं म्हैं कीं काम करवा लेस्यूं। थानै बूढा बारां नै के फोड़ा घालां।”

“ना रै। बीं नै को देखै भाळै नीं। बो के कर सकै... ।”

“बा म्हारै उपरां छोडद्यो।”

“ठीक है पूरणां। पण बिचारै नैं कीं उलटी-सीधी कैय ना दैयी। बिंया इज भगवान रो मारेड़ो है.... ।” हरखो ओजूं गळगळो हुग्यो।

दूजै दिन सूं सूरदास काम पेटै पूरणसिंघ कन्नै आग्यो। पूरणसिंघ सूरदास नैं दरी-बोरै रा आंटां सीखावै। सूरदास बडै कोड सूं सीखै। बोरे अर दरी रो तणीज्योड़ो ताणो सूरदास नैं तंदूरै रा तारां बरगो लागै। सूरदास घणी खेचळ करै काम मांय। जीवण री गत बदळगी सूरदास री।

घणां दिन नीं लाग्या सूरदास नैं काम सीखतां। साच कैवै बिंया कै आंधै-काणै रै अेक रग फालतू होवै। पूरणसिंघ रो घणकरो सो काम सांम्हण लागग्यो सूरदास।

पूरणसिंघ इज सूरदास रो होंसळो बढ़ांवतो जावै। बो पूरणसिंघ नैं साथै-साथै न्यारो काम इज सूंपै।

सूरदास रै कर्‌योड़ै काम री मजूरी बो सूरदास नैं दीरावै। हरखो, सूरदास अर सूरदास री मां रो चोखो गुजारो चालण लागग्यो।

सूरदास पक्को कारीगर बणग्यो..... जबरा बोरा बणै........ दरी मांय मटो लहर न्यारी घालै........? हिड़दै च्यानणूं है................. गांववाळा न्यारी-न्यारी टीप राखै।

पूरणसिंघ अवै सै’र मांय दूजी दुकान करणै तेवड़ी। गांव अर असवाड़ै-पसवाड़ै रै गांवां रो काम सूरदास पेटै।

पो-बारा पच्चीस होगी सूरदास रै। हरखो हरखातो फिरै।

अेक दिन फूसो आयो सूरदास कन्नै। कीं दरी बणावणी ही लोगड़ री। साई ले ली सूरदास। जांवतो-जांवतो फूसो पूछ्यो सूरदास नैं- “सूरदास, हरफूल कैवै हो कै सूरदास नै थूं बूझी कै वो म्हानैं इज काम सीखा देवै के?”

सूरदास हामळ री नाड़ हलावै हो।

स्रोत
  • पोथी : पीड़ ,
  • सिरजक : दुलाराम सहारण ,
  • प्रकाशक : अमित प्रकाशन ,
  • संस्करण : प्रथम
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