जाट रो बेटो, धन रो धायोड़ो, चौधरी बजै। मां-बाप री कमाई, जमीन, धन, बिना कमायो माल जवानी रै साथै हाथ लाग्यो। आछो घर, पक्को दरवाजो, चौधरी रै मोज होरी पण एक काणै मारै, चौधरी दादै रो नाम नहीं जाणै। बाप नै दादै रो नाम पूछ्यो हुवै इसी बात नहीं। घणी-बार बाप अर मा रै सामणै बात राखी— पण मिल्यो कीं नीं। दादो छपनें री फेर में मा-बाप सूं दूर होग्यो। छोटी उमर, सुध-बुध री कमी, बाप नै दादे रो नाम याद रह्यो नहीं। बखत बीततो गयो, चौधरी रै बाप रै जवानी आंण लागी, सिर साम्यो। सूझ-बूझ सूं चाल्यो। पेट धरण लाग्यो। थोड़ा दिनां में लिछमी आवण लागी। लोग उण कानी देखण लाग्या। सगाइ री बातां चाळण लागी। ब्याह होग्यो। लोग-लुगाई मिळ’र चालण लाग्या। जीवतां जी आछो घर, पक्को दरवाजो खड़्यो कर लियो। रिपिया-पीसा आवण लाग्या, लिछमी बढतां देर कोनी लागी। हाथ री कमाई, पांच लूंवां रो धन, घर हर्‌यो-भर्‌यो दीखै। बाप भूखो जाम्यो अर धाप्यो मर्‌यो। चौधरी नै मा-बाप सूं कीं मिल्यो, पण दादै रो नाम नहीं मिल सक्यो।

धन रो धायोड़ो, बिना कमाई रो पीसो तिण पर जवानी बैरण, दो आंगळ सूं आगै दीखै नीं। चौधरी चढ़ै, चार माधिया भाई सागै राखै। जवानी पूठौ चलावै, चौधरण भी चौधरी सूं कम नीं। जाट री बेटी। सासू बिना रो घर, माया री मरोड़ में करड़ी रेवै। घर खोवण में चौधरी सूं च्यार चंदा आगै मिलै।

चौधरी खुद कमावे नीं, बाप री कमाई नै धूंई दे, रात दिन फूंकै। कमाई कोड़ी री नीं, खर्च हजार रो। थोड़ा दिनां में कंगाळी बिना बुलाई धमकी। बात लुकावण खातर चौधरी घर रो गैणो-गांठो पार करण लाग्यो। बात घणा दिनां नीं निभी। हाथ खाली हो चाल्यो। टाबरपणै रा कुलछ, सामणै इज्जत में खतरो। सिर पर करजो, करजदार रो रोज मांगणो बुरो लागै। चौधरी नै कोई मांगतो दीख ज्यावै— बाप रो मारणियो सो लागै। माधिया भाई, बणी-बणी रा साथी, अणबणी में खिसकण लाग्या। घर में चौधरी चौधरण एकला रहग्या। मांगतोड़ा करजै में कैद करावण त्यार हुया। चौधरी चौधरण री आंख खुली। ज्यान बचावण खातर घर बेचणो पड़्यो। करजो इण पर भी उतर्‌यो नीं। मांगतां छेकड़ कैद करा दी। चौधरण बिना घर कठै रवै। अपणे मां-बाप नै याद कर्‌यो। पीर चली गई।

कई महीनां पाछै चौधरी छूट’र आयो। गांव में चौधरण नीं। रात गळी में काटी। अगलै सबेरै गांव छोड़’र चाल्यो। लोगां देख्यो। गांव रो एक बडेरो बोल्यो—

‘रो बाप इणी भांत एक दिन इण गांव में आयो हो, आज इण गांव सूं जार्‌यो है। बात सुण’र किणी स्याणै मिनख कहीं—

जे पूत सपूत तो क्यूं धन संचै।

जे पूत कपूत तो क्यूं धन संचै॥

स्रोत
  • पोथी : राजस्थान के कहानीकार ,
  • सिरजक : कुम्भाराम आर्य ,
  • संपादक : दीनदयाल ओझा ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी साहित्य संस्थान, जोधपुर ,
  • संस्करण : द्वितीय संस्करण
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