म्हैं केशरीसिंह जी सूं मिल लियौ।

स्यात वांसू मिलणौ ठीक रैयौ। ठीक इयां कै अबै वै म्हारै सूं कीं सावळ सुरेन्द्र सागै बात करसी सुरेन्द्र, पूरो नांव लेवां तो श्री सुरेन्द्र गुप्ता। सुरेन्द्र गुप्ता ! तन्नै इण तरै म्हारो भायलो नीं निकळणौ चाइजतौ। बचपन रौ भायलो, वो जकौ आठ दरजां तक म्हारै सागै पढ्यौ अर नंबरा सारू वीरै अर म्हारै विचाळ हरमेस दौड़ हुंवती। अेकर दोबर नै छोड़'र म्हन्नै याद नीं कै म्हैं वींने आगे निकळण दियौ हुवै।

खैर सल्ला,बा बचपन री दौड़ ही अबै सुरेन्द्र म्हारै सूं बौत आगे निकळग्यौ है। अठै लग कै केशरीसिंहजी नांव बतायौ, तो मन्नै याद नीं आय सक्यौ के वौ सुरेन्द्र है या हुय सकै लागै कै पैली तकलीफ जमानै तक सीमित ही। वींसूं मिल्यां पछै वा गैरी हुयगी-ठेठ मन में कुओ खोद'र सुरेन्द्र, म्हारौं बचपन रौ दोस्त।

आपनै असल बात बताऊं!

सुकरवार री बात है। किसना कैयौं कै पीरै जावूली। चार बरसां तांई वींरौ सायबों रैयर म्हैं जित्ती वीं नै जाण सकूं, उण मुजब वा म्हन्नै इत्ती सीधी, गऊ- सरीखी दीखै कै रेल में अेकली यात्रा करण देवणी नीं जच सकै। इयां मौकै बेमौकै वा अेकली गई भी है। इण रौ हवालो देय वा कैयौ के म्हन्नै टैम नीं, तो वा अेकली चली जावै। किसना री मां रा मांदगी रा समाचार आया केई दिन हुयग्या, पण आज लागे हो कै वीर हियै हूक उठगी। म्हें बीं नै रेल में बैठावण नै गयौ।केशरीसिंहजी अठै मिल्या वां सूं कोई घणौ सेंधपणो नीं, म्हारै अेक भाई सा'ब रै दफ्तर में वै अबार

बदळी करा आयौड़ा है। म्हारा भाई सा'ब वारै सागै इत्ता दिनां में बेजां हेत-प्रेत बढ़ा लियौ, इण सारू वै म्हन्नै घर रा आदमी लखावै। म्हेँ वानै कैयौ कै थांरा टाबर इणी गाड़ी सूं जावै- आप थोड़ी निगै राख लीज्यौ।

पण म्हैं दो स्टेशन बाद उतरूंला। वै केयौ, कोई बात नीं। बठै सूं कीं लोग चढ़े, आपणा मित्तर है। वानै केय देसूं।

देख लिया। म्हैं इयांई कैयौ।

नहीं, तूं निश्चित रैव, ठीक म्हारै भाई सा'ब जितै बडेरपणै सूं वै बोल्या अर आज किसना पीर सूं पाछी आयगी।

वा स्यात कीं नीं बतांवती, पण म्हें वारे गऊपणै नै परखण री नीयत कर ली। बीं दिन चोखी तरै गई नीं? पूछ लियो। “चोखी तरै? वा चमकर बोली, इणसूं तो चोखौ बिना चोखी तरै हरमेस दांई अेकली जांवती।

कियां?

वा बतावण लागगी, थे जिणनै म्हारी भेळावण दी, वै बौत भला आदमी हा। मिंटू रोयौं, तो गोदी लेय'र फिरायौ- म्हनै बाई सा- बाई सा कैंवता रैया अर बड़ा आळी स्टेशन पर बड़ा लाया। हां, तो फैर कांई हुयग्यौ ?'' म्हैं हरमेस दांई वींरी बात रा टांग पूंछ नीं पकड़ सक रैयौ हो। वै आप उतरता अेक दूजै आदमी नै भोळावण देय दीनी। वो रांड रौ... किसना ठैर गी।

कांई कर्‌यो वौ रांड रौ? म्हैं फंफेडीजतौ सो बोल्यौ।

रेल में तो कीं नीं बोल्यौ। बोलतों किया? सामीं अेक बूढ़ी माजी बैठी, पण उतऱयां पछै।

कांई हुयौ, उतऱयां पछै ?

वो कैयो कै तांगो करवा दूं अर मिंटू नै गोदी ऊंचर बहीर हुयग्यौ। म्हैं लारे-लारे। रस्तै में म्हन्नै पूछ्यौ केशरीसिंह जी कांई लागै? म्हैं इयांई अर कीं भावी पिदाण' झूठ बोली कै वै चाचा-ताऊ रै रिश्तै में बड़ा भाई लागे। जणां पूछयौ के आपां राजपूत हां कांई? अबै म्हारै सूं झूठ नीं बोलीज्यौ, कैयौ कै नीं, म्हे तो सरमा हां।

पण इण में कांई जुलम हुयग्यौ? म्हैं वीं री रामकथा सूं ऊबण लागग्यौ।

“थे सुणो जद तो बताऊं। किसना नाराज हुंवती बोली। हां, सुणूं...पण तूं जल्दी बता...। म्हारी उत्तेजना अबै छानी नीं रैयी। सुकर के किसना इण पर गौर नीं कर्‌यो।

“फेर तांगे तक लियायौ। वा फैर बतावण लागी, तांगे में बैठा पूछ्यौ कै पूगावण नै घर तांई चालूं? म्हैं कांई केवू? केय दियौ थां री इच्छा जद वो बोल्यौ- आप म्हारै घरै चालो म्ह चमकी- थारै घर कांई काम? जणां म्हारी साथळ सूं आपरौ हाथ अड़ा 'र बोल्यौ काम तो थांरी इच्छ्या हुयसी ज्यूं कर लेसां...! “अच्छ्या, करी वीं...। म्हैं खड्यौ हुयग्यौ अर रीस में थर-थर कांपण

लागग्यौ। “बातां तो अणपढ़ समझे। म्हैं कैयौं-हाथ बठीनै राखो ! हां, पण फेर कीं बिना पूछ-ताछै तांगे में म्हारै कन्नै ई, चढ़ बैठग्यौ। अबै म्हैं कांई कैवूं?” “कंवती कियां नई...। म्हारै नाक में म्हन्नै गरमी लखावण लागी, अर माथै में जाणै जेठ असाढ़ रौ सूरज तपै म्हैं बोल्यौ, सामीं तो मासोजी री दुकान ही... केय देवती कै अेकली चली जावूंला।

“भई, वो इण तरै धंसर बैठ्यौ कै म्हारै सूं की नीं बोलीज्यौ। वीं म्हारै बाबत कीं नीं पूछ्यौ ?

पूछ्यौ। म्हैं कैयो कै पैली नौकरी करता, अबै कहाणियां लिखै। तो वीं पूछ्यौ अच्छ्या, लेखक है। फेर नाम पूछ्यौ जद म्हें बता दियौ। “अर वीं जाण्यो कोयनी?' नहीं, बो कीं नीं बोल्यौ। किसना कैयौ, तो वीं री बात म्हारै डाम हुवै ज्यूं लागी म्हनै म्हारी पचास रै नैड़ै छप्यौड़ी कहाणियां री उपलब्धि ओकर में

फालतू जांवती लखाई। किसना सैम चुप रैयगी म्हैं बात आगे बढ़ाई, किसौक दीखतो हो? मूंछ्या ही कांई?

“म्हें सावळ नीं देख्यौ। म्हैं क्यूं देखती! पण स्यात मूंछ्या ही “कैवै, सावळ नीं देख्यौ अर सब बतावै। फेर कांई थारै घर तांई नहीं, रस्तै में उतरग्यौ। म्हन्नै पूछ्यौ- आपनै नीं जचै तो उतर जाऊं... म्हैं कैयो , उतर ही जाऔ तो ठीक रैवै। जद उतरग्यौ अर जांवतै-जांवतै मिंटू नै केयौ-यार म्हैं तो मजाक करी। थारी मम्मी गळत समझगी। म्हन्नै गुस्सौ आयग्यौ। म्हैं कैयौ इणरौ बाप घणो म्हारै सागै मजाक करण नै, थे थांरी मां-बैण सूं मजाक करता।

“साब्बास! म्हारै मुंहडै सूं निकळ्या, “फेर?

“फेर कांई? म्हँ घरै पुगगी। नांव कांई हो वींरौ।

“म्हैं पूछ्यौ कोनी। म्हैं क्यों पूछती?

“पूछ लेंवती तो ठीक रैंवती म्हैं अबै बैठ्यों ही सलट लेंवतौ...। केय'र म्हें सोचण लागग्यो।

सोच्यौ अर बौत सोच्यो। केई ताळ किसना पर झुंझलाट आई तो केई ताळ जमानै पर रीस।

सोच'र म्हें कैयौ-तू कैवै तो वीं री टांग्या तुड़वा दूं?

देख लो... वा साव ठंडी सी बोली।

म्हैं फेर सोचण लागग्यौं। सोच्यौ कै रामेश्वर नै कागद लिखूं। बातां में किसना रौ बतायोड़ी याद आयौ के वीं रै हाथ में अंगरेजी अखबार हो। ठीक है, रामेश्वर सोध लेवैला। हुवणी चाइजै। जरूरी है। फेर मतौ पलट्यौ। म्हैं आप जावूंला। शर्मिन्दो करणौ ठीक है। हुई सो देखी जावैला। मारूंला, म्हारै हाथा सूं। या...या फैर, हां किसना बतायो कै वो स्यात बैंक में नौकरी करै-वीं रै मैनेजर नै कागद लिखूं।

अर छैवट म्हें केशरीसिंह जी कन्नै पुग्यौ

थै वींनै कांई कैयौ?” तकलीफ री बात लुको वां नै संदर्भ चेतै दिरायौ। कैयौ- म्हारी सिस्टर है। सागै टाबर है। सावळ उतार तांगो करवा दियै।

“थारी सिस्टर ही नीं? मैं नाटक करतौ-सो बोल्यौ ठा है, वीं आपरी सिस्टर सागै कांई व्यौहार कर्‌यो?

हेंऽऽ...। केशरीसिंह जी चमक्या, कांई कैवै ?

म्हें संखेप में सगळी बात बताई।

हुवणी तो नीं चाइजै...। वै फेर कैयो। हुयी है नीं...थै वीं नै तो जाणो हो? म्हारौ इसारौं म्हारी पत्नी किसना कानी हो। म्हैं बात निजू पतियारै पर भूल केय दी कै केशरसिंह

जी साचै नीं जाणै।

पण वै बोल्या, हां-हां... कांई बात करौ... आदमी चेरै सूं छानी थोड़ी रैवै। “तो फेर ?

म्हें जावूला बात करूंला नालायक सागै।

केशरीसिंह जी नै रीस आंवता देख'र म्हन्नै आराम आवण लागग्यौ।

XXX

अर केशरीसिंहजी सूं पैलां म्हैं पूगग्यौ। किसना भोत पछै म्हन्नै बतायौ के वीं दिन तांगै रा पइसा वीं दिया।

ओह! म्हन्नै सुण'र बेजां रीस आई। सोच्यौ-तुरंत मनि-ऑर्डर करूं। ठिकाणो तो केशरीसिंहजी नै पूछ ही लियौ हो। फेर रैइज्यौ नीं अर म्हैं आप वीं नै तीन-रुपिया पूगावण नै आयग्यौ।

देख्यौ, तो देख्यौ कै सुरेन्द्र म्हारै सूं दौड़ में खासा आगै निकळग्यौ है।

दो स्थानीय सेंध-पिछाण आळां नै म्हैं सागै लेय लिया। वै वींने जाणग्या, पर ओजूं म्हारै वीं सूं मिलण नै आवण री गंभीरता सूं अणजाण हा दूर सूं वै इसारो कर्‌यो- बे है-सेविंग री विंडो पर बैठ्या है जका।

मूंछा म्हारै सूं की ज्यादा गैरी पण चैरो छिप्यों नीं। म्हारै सामीं आठ दरजां तांई सागै पढणआळो चैरो, मूंछा लगायां बैठ्यौ जाणै। सुरेन्द्र... तूं ई? वै घूंघरिया पट्टा... अर वौ प्रार्थना री लैण में आगै-लारै उभ'र अखूणी मारण आळौ सुरेन्द्र। सामीं चूंठिया बोढ़ण आळौ म्हैं।

“अरे...शेखर ! अचंभो बड़ो हुयग्यो जद वीं मन्नै, म्हारै सूं ज्यादा फुरती सूं पिछाण लियौ। तूं अठै किया? “इयांई...। म्हैं बोल्यौ, “तो तूं अठै बैंक में है...। बिल्कुल... क्यों जंच्यो कोनी? वींरी आवाज रौ पतळोपणौ स्यात मूंछां नीचै

दबग्यौ हो, “अर तूं कांई करै आजकालै?

वो हरखीजतौ-सोक काऊंटर सूं उठ्यौ अर सरकतौ - सरकतौ बारै आयग्यौ,

“आव चालां...।

बैंक रै साम अेक मुच्योड़ी-सी होटल में वीं रै सामीं बैठ्यों हूं। वीं रै सवाल रै उत्तर में बताय रैयौ हूं, इयांई यार. पढ़ाई-लिखाई तो ज्यादा दूर चाली कोनी। मां रौ शरीर शांत हुयग्यौ, जद पिताजी ब्याव कर दियौ के घर में रोटी रौ फोड़ो नीं पड़े। फेर वै चाल बहीर हुया नौकरी सोधतां-सोधतां 'ओवर-एज' हुयग्यो। प्राइवेट नौकरी करी। ईं चक्कर में छूटग्यौ। जमीं कोनी लिखण-पढण रौ शौक हो, कहाणियां लिखण लागग्यौ। समझ लै फ्री लांसर हूं।

हां हां! वो चमकर बोल्यौ, “अेक दिन रेल में एक कोई मिली। नांव बतायौ वो तूं हो। अरे यार ! देख पिछाण्यौ नीं। म्हें पढूं कम हूं। बैंक री नौकरी में अखबार पढ़ीजै, बो मुश्किल सूं...फेर... फेर यार लेखक है तो कोई चोखो नांव राखतौ... थारौ नांव बड़ो कॉमन है नीं.. .शेखर शेखर। वौ म्हारौं नांव लेय 'र जोर सूं हंस पड्यौ।

दो बाळ- गोठियां नै बरसां बाद मिलता देख म्हारै सागै आया जिका शांत अर प्रसन्नचित बैठ्या हा।

म्हैं सोचूं, केशरीसिंहजी सूं पैली मिलणौ स्यात बौत ठीक रैयौ।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थान री आधुनिक कहाणियां ,
  • सिरजक : मालचन्द तिवाड़ी ,
  • संपादक : श्याम जांगिड़ ,
  • प्रकाशक : बोधि प्रकाशन
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