हिरणी म्हारी पैली लुगाई ही।

नांव तो उणरो रतनी हो पण म्हैं हिरणी कह’र बतळावतो। हिरणी री दांई जाबक भोळी-ठेठ गांव री। उणरै भावैं दूध धोळो अर छाछ धोळी। अेक री दो नहीं जाणै। जाबक बचकूकर! पैली दफै दिल्ली सिरखै शहर नै देख’र डांवरेड़ी हिरणी दांई हुयगी। अकै सागै इत्ता मिनख, मोटर बर गाड्यां नै देख’र बावळी हुयगी। ठेसण सूं जद भाड़ै री मोटर में बैठा’र उणनै घरै लायो तद पैलीपोत बात बूझी कै रात नै अै इत्ता मिनख कठ जासी? कह’र बा आपरा हिरणी रा-सा डीघा-डीघा नैण घुमाया। म्हैं उणरो भोळपणो अर सीधोपणो देख’र पैली तो हंस्यो, भलै उणनै बतायो कै तूं थोड़ै दिनां में बात आपैई जाण जावैली।

म्हारो मकान शहर रै अेक गंदै अर सूगलै मोहल्लै में हो। मकान कांई, किणी मक्खीचूस पेंशनसुदा अफसर रा किरायै खातर बणायोड़ा दसेक क्वार्टर हा। इणामें अेक कोठड़ी, ऊपर टैणा री रसोई। दसूं क्वार्टरां रै बिचाळै अेक नहाणघर अर उणरै चिपतो अेक सूगलो-सो जाजरू। कोठड़ी जिणमें ऊभो मिनख मावै कोशी। अेक खाट घाल’र थोड़ी-सीक जगां ऊबरै। खाट रै नीचै पेटी, खूणै में पाणी री मटकी, बाकी घर-गिरस्थी री छोटी-मोटी जिनसां। छात पर रसोई में पांच-सात बरतण। सिगरेटां अर च्यवनप्रास रा खाली डिब्बा जिणा में मिरच अर मसाला। म्हारो कोई बेली-मित जे म्हारै कनै मिलण नै आय जावै तो हिरणी रसोई में ऊपर जावै परी अर ऊपर बैठी सोचती रैवै कै आवणवाळो कद जासी? जे कोई पाड़ोसण हिरणी सूं मिलण नै आवै तो म्हैं उणरै पगां रा खुड़का सुणतां ऊपर रसोई में जाय बैठूं। जद तांई पाड़ोसण नहीं जावै, म्हैं रसोई में बैठ्यो मिरच-मसालां रा डिब्बा गिणतो रैवूं। रसोई रै चिपतो नहाणघर अर छोटो-सोक जाजरू। दफ्तरां में जियां फर्नीचर रै तोड़ै सूं च्यार-च्यार बाबू अेक मेज पर काम करै, उण भांत म्हैं अर म्हारा पाड़ोसी उण नहाणघर अर जाजरू नै बरतां। क्वार्टरां में गड़पड़तां पांच-पांच रै हिसाब सूं छोटा-मोटा पचासेक जीव हा। म्हारै जे अेक टाबर नीं हो तो कोई; पाड़ोसी क्वार्टरां में सात-सात टाबरां री डार-री-डार फिरती। क्वार्टरां सूं बारै कीचड़-कादो! कूरडी पर आखै दिन माख्यां भिणकती।

देख्यां जी घबरावतो। उल्टी-सी हुवण लागती। छोटा टाबर जिणा रै घणी तागड़ हुवती, जे जाजरू में बारी नहीं आवती तो वे कूरड़ी री शोभा बधादता। गंदा नाळा भर मोर्‌यां में दिन भर सूवर अर सूरड़ी पड़्या लाधता का की-न-कीं सोधता दीसता।

दिन में म्हैं तो दफ्तर जावतो परो बर हिरणी बैठी आपर गांव री बातां याद करती रखती। गांव रा ऊजळा धोरिया, फोग, बांठ अर नीमड़ां री छीयां में बैठी भैंसां अरं गायां री बोळ्यूं करती। पींजरै में कैद हिरणी री दांई बा आखै दिन रसोई सूं कोठड़ी अर कोठड़ी सूं रसोई बिचाळै गड़का लगावती। मीयां री दौड़ मसीत तांई। अेकली बारै जावती डरती।

दिन में तो कीं ठाह कोनी पड़तो पण रात नै गळी रा कुत्ता इस्यो रमझोळ मचावता, इसी लड़ायां करता कै म्हांरी नींद हराम। रात नै जे नींद पूरी नहीं आवै तो दूजै दिन अळसाक। फेरूं भी इण कोठड़ी में धाकौ धिकावां।

कोठड़ी रो दरूजो भी बैकुंठ री दांई खासा सांकड़ो हो। म्हारै जिसा तकतूळिया जवान तो सरड़ाट करता उण में घुस जावता। पण गांव री मोथी दोलड़ै हाथ-पगां री हिरणी उणमें दोरी मावती। भारत री रेलां में दूजै दरजै रै डिब्बै में बड़णो अर म्हारी कोठड़ी में बड़णो सिहगढ़ विजय सूं कम कोनी हो। बार-बार मकान पळटणै रो विचार करता पण घरू बजट रै आंकड़ै कानी निजर पड़तां मन माठो पड़ जावतो। दिल्ली सरीखै शहर में इत्ती ठौड़ मिलणी कम नीं हो। खिड़की रै नांव पर उण कोठड़ी में बिलानेक लाम्बो-चौड़ो झरोखो हो। उणनै दो-च्यार बार खोलण री हिम्मत करी पण छेकड़ ढकणी पड़ती। खिड़की खोलतां सांम्ही खुली जागां में मेहतराण्यां जाजरू खाली कर’र आपरी टोकर्‌यां उणी ठौड़ ऊंधी करती। आधूणी पून रै फटकारै सागै बदबू-ई-बदबू हुय जावती।

च्यार-छह महीनां तो दोगाचींती में इयांई बीतग्या। हिरणी गांव में कुदड़का मारती, कुवै पर पाणी लावण नै जावती अर पाड़ोसणा सागै हंसती-खिलती आवती। घर में च्यारूंमेर रम-झम-सीक रैवती। अठै कांई हुयो? दिल्ली आयां फेरूं वा ओळा मार्‌योड़ी कमेडी री दांई सिटगी। सूख’र जाबक नाकै लागगी। गांव री जीवणदाई सोरम, जिकी उणरै रूं-रूं में भर्‌योड़ी ही, कठैई अलोप हुयगी। उणरी ठौड़ शहर री सुगली दीवळ सूं डील सुळण ढूक्यो। म्हैं तो कियांई कर परो धिकावतो गयो पण हिरणी जाबक सिटगी।

अेक दिन म्हैं बारै सूं आयो। वा रसोई रै काम में लाग्योड़ी ही। रोटी करती जावै अर आंसूड़ा डळकावती जावै। म्हैं देख’र डर्‌यो। बुझ्यो-कांई बात है? रोवै कींकर?

बा पल्लै सूं आंसू पूंछ’र मुळकण री चेष्टा करी अर बोली-नई तो।

म्हैं गौर सूं उणरै मूंढै कानी देख्यो। आंख्यां पोळी, मूंढो उतर्‌योड़ो, रंग पूणी-सो धोळो। खून री अेकोअेक बूंद जाणै किणी चूसली हुवै। म्है भळै बुझ्यो—कांई बात है? आवड़ै कोनी?

चोट घाव पर लागी। सुणतां बुसक्यां फाटी। सिर गोडां में दे दियो अर आंख्यां में सावण-भादवो अेकै सागै आय ढूक्या।

—जे नईं आवड़ै तो म्हैं थांनै गांव पूगाय देसूं। कांई आंट है? म्हैं कह्यो।

हिरणी पल्लै सूं आंख्यां पूंछ’र बोली- तो थांरो कांई हाल हुसी? रोटी कुण बणासी? होटलां में टुकड़ा खावतां-खावतां तो डोळ हुयग्यो!

—तो इण भांत बळद मार’र तो खेती करणी कोनी। तूं दिनोदिन सिटती जावै। शहर रा हवा-पाणी थारै जचै कोनी। तूं गांव में रह। बदळी तो म्हारी हुई है, थांरी थोड़ी हुई है।

हिरणी बोली-पण सिरकीबंदां री-सी जिनगाणी कदतांई चालसी? म्हैं उथळो दियो—इसी जिनगाणी तो आज आखै मिनखां री हुय रही है। अेकलो म्हैं तो जिनगाणी बितावूं कोनी। देश रा लाखूं-करोड़ू लोग खानाबदोसां री दांई घरां सूं सैकडूं कोसां अळगा;... काळा कोसां पड़्या है।

हिरणी कह्यो—थे बताया करता नीं कै आपणी सरकार लाखूं बेघरबार अर उजड़्योड़ै लोगां ने बसावै है। पण म्हैं देखूं कै बसावणो कांई, तो उजाड़्णो है। घर रै आखै मिनखां नै अळगा करणा है। मां-बाप कठैई है तो बेटा-बेटी दूर कठैई।

म्हैं बोल्यो—आ तो नौकरी है। सरकार कांई करै?

हिरणी कह्यो—तो सरकार उणानै नौकरी गांव में दे देवै नीं। अबै म्हैं उणनै कोई कह’र समझावूं? हिरणी ना तो भोळी अर ना स्याणी। सांम्है चूल्है कानी देख्यो तो रोटी बळगी। बातां-ई-बातां में ध्यान कोनी रह्यो।

म्हैं सोच्यो कै अबै सूगलो अर छोटो-सोक घर छोड’र किणी साफ-सुथरी जागा चोखो मकान लेवणो चाइजै जिणसूं जी भी लागै अर नीरोग भी रैवां। जे चोखो मकान मिल जावै तो हिरणी गांव नीं जावै, निर्णय कायम रह्यो।

म्हैं दूजै मकान रो प्रबंध करण रो संकळप लेय’र उठ्यो। रोटी तो कांई भावै ही। दो-च्यार टुकड़ा गळै उतार्‌या अर पाणी रो गुटको लेय’र ऊभो हुयग्यो। हिरणी घणा निहोरा काढती रही पण म्हैं उठग्यो जिको उठग्यो, भळै कोनी बैठ्यो। पगरखी पैर’र सीधो गांधी कोलोनी में अेक भायलै कनै गयो। हेलो पाड़्यो। किंवाड़ खुल्या। अेक छोरी बोली—

काकोजी तो घरै कोनी।

—कठै गयोड़ा है?

—बै तो कोई मकान ढूंढण नै गया है। बा बोली।

—क्यूं, मकान है नीं। भळै दूजो क्यूं?

—इणरो किरायो बधा दियो सो पोसावां कोनी।

सुणतां म्हैं सागी पगां बावड़्यो। कोलोनी रो अेकोअेक मकान भाड़ेती री निजरां सूं देखतो गयो म्हैं। अेक कुंट पर गळी मुड़तां ‘किरायै खातर खाली’ लिख्योड़ो देख्यो। मन में हरख हुयो जाणै बिद बैठ जासी। सौदो पटतो दीखै। मन में देवी-देवता मनावतो उण कानी चाल्यो तो मकान रै ताळो लाध्यो। पाड़ोसो रा किंवाड़ खटखटाया तो अेक चश्माधारी मेम किवाड़ खोल्या। रीसां बळती बोली—

क्या मांगता है?

मकान कानी आंगळी कर’र म्हैं भाड़ो बूझ्यो।

—अेक सौ पचास! अेक माह रो अगाऊ। सुण’र म्हैं तो कान बोच लिया। जे भींत सहारै नीं हुवती तो झुंबाळी खाय’र पड़ जावतो। मेम साब बड़बड़ करती किंवाड़ ढक लिया। म्हैं कीं गमायेड़ो-सो आगीनै बहीर हुयो।

दो-च्यार जागां और भचीड़ खाया। छेकड़ जी काठो कर्‌यो—जाड़ भींच’र अेक मकान सित्तर रिपियां में जचा लियो। मकान हवादार और फूटरो हो। अेड़ै-छेड़ै खुली जागां। आड़ोसी-पाड़ोसी भी ठीक लाग्या। आधा रिपिया धणी नै देय’र रसीद लेय ली। अबार सामान लेय’र आवणै री पकाई करी। मन में घणो कोड। खाथो-खाथो चालतो जावूं अर सोचतो जावूं कै अठै आय’र म्हारी हिरणी भळै कुदड़का मारैली। बीं घरकुंडियै सूं निकळ’र अठै सोरी रैवैली। बीस-तीस रिपिया दवायां रा लागता जिका अठीनै भाड़ै में लाग जासी। कोई बात नीं। काण घड़ै में जासी। कोई अड़ांस नीं।

मारग में दो तांगा भी सागै लेय लिया। आज वार चोखो हो सो आज नुंवै मकान में डेरो देवणो हो।

तांगां नै बारै ऊभा कर’र म्हैं घर में बड़्यो। हिरणी नै नुंवै मकान सारू बधाई देवण नै बोल्यो-बोरी बिस्तर बांध’र अबी चालणो है। बारै तांगा तैयार ऊभा है।

हिरणी कीं बोली कोनी। म्हैं देख्यो, नींद आयगी हुवैली। रसोई में झांक’र देख्यो तो कान खुस’र हाथां में आयग्या। हिरणी थाळी पर मूंधी पड़ी है। लाइट जगै ही। गाभा अठी-उठी हुयोड़ा हा। आधी रोटी खायोड़ी। साग-सब्जी खिंड्योड़ा। हिरणी नै दोरो आवतो। जाड़-दांत भिचग्या। हाथ-पग ठंडा हुयग्या। नाड़ी देखी तो ठंडो हुयग्यो। हिरणी लाम्बी छलांग लगायगी।

बारै ऊभा तांगैवाळा हेलो देवै हा— बाबूजी! जल्दी करो। मोड़ो हुवै है।...

स्रोत
  • पोथी : उकरास ,
  • सिरजक : बैजनाथ पंवार ,
  • संपादक : सांवर दइया ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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