सेठ रिखबचन्द रै टाबरां नैं पढ़ाय’र मास्टर किसोरीलाल घरे जावण सारू हवेली सूं बारै नीसर्यो, जद ऊजाळै मा’ह महीनै री चोथ रै चंदरमा री फूटरी किरणां उण रो घणो स्वागत कीनो। माथै मावटो हो अर हवा बाजै ही। ठाड पड़ै, जाणै हिमाळो हालियो हुवै। बारै नीसरतां मौर मांस्टर नैं धूजणी चढ़गी। उण दोनूं हाथां सूं छाती ढक लीनी। दांतां री किटकिटी बाजण ढूकगी। मास्टर मन में विचार कीनो कै ज्यू-त्यूं करनै अैस ऊनी बंडी तो लेवणीज पड़सी। इयांस तो नमूनियो होवतां घडी’क बार ई को लागै नीं, अर नमूनियो होयां घर रो गाडो कीकर चालसी। “पैलो सुख निरोगी काया।” दो पग आघा देवतां मौर फाटोड़ै खाडकै मांय कांकरो घुस पगां में गडग्यो। मास्टर खाडकै मांय सूं कांकरो काढ्यो अर बिचार करण ढूको के ऊनी कपड़ो करावणो म्हारै सारै री बात कठै? घर में नैना-मोटा छः टाबर, दोय मा-बाप अर अेक लुगावड़ी – जिकी नित मांदी रैवै। आधी तिनखा तो दवाई-पाणी में लाग जावै। भगवान गुड़ावै जित्तै गाडो गुड़कै है, छेवट अेक दिन फूंक निकळ जासी। गरीबी रो नै ग्यान रो कितरो जोरदार सगपण है, मास्टर किसोरीलाल जोर सूं अेक ऊनी निसांस लीनी।
सेठ रिखबचन्द दुकान बडी कर नै घरे पधारता हा। तीस-पैंतीस बरस रा रूपाळा आदमी, ठिंगणो डील, गोरा मुगल हुवै जैड़ा। ऊमर थोड़ी ही, पण जस घणो हो। तैसीलदार, बी० डी० ओ० बां नैं जाणता हा। राज में पासो हो। बांरै बिना गांव री पंच-पंचायती अधूरी रैवती। घरे घणोई बोपार हालै हो। नुंवी दुकान सरू कीनी ही। बडेरां री बोरगत ही। साबू नै बीड़ियां री एजेन्सी न्यारी हालती ही, नै बीमा रो काम फेर न्यारो ई करता हा। सेठां रै चारूं कानी सूं नोट बरसता हा। काळी मिरचां मांय अिरंडकाकड़ी रा बीज, पिसीजियोड़ी मिरचां मांय राती (गेरू), हळदी मांय मेट अर देसी घी मांय डालडा भेळ-भेळ नैं बेच’र सेठ आपरी मीठी बोली नै लुळताई सूं मिनखां मांय देवता बाजता हा।
लाडजी कन्दोई री दुकान सूं सेठ सेठाणी ताणी कळाकन्द रो दूनो लेय’र आवता ई हा, कै उणां मास्टर किसोरीलाल नैं देख्यो। हाथ जोड़’र बोल्या, “माट’सा, राम-राम।”
मास्टर किसोरीलाल जाणै सरम सूं धरती मांय गाबड़ नांख दीनी। जुलम हुयो। इत्ता मोटा सेठ, अर उणनैं राम-राम करै…! दोनूं हाथ जोड़, जाणै माफी मांगतो हुवै ज्यूं घणी लुळताई सूं बोल्यो – “निमस्कार सेठजी।” कीं सरदी रै बोळास सूं अर कीं अपराध-भावना सूं मास्टर रा दांत किटकिटावण ढूका।
सिंझ्या पांच-साढ़ी पांच बज्यां रा सेठ भांग रो आचमन लेवता। साढ़ी सात-आठ बज्यां तक ठंडाई रो रंग आवतो। जदै सेठां रो मिनखपणो जागतो। ‘मकड़धज’ अर ‘सिलाजीत’ रै सेवन सूं सेठां नैं कीं सरदी रो बेरो को लागतो हो नीं, पण मास्टर किसोरीलाल नैं दांत कटकटावतां देख्या, जद बोल्या – “माट’सा, आज तो ठाड घणी पड़ै।”
“हां, सा..! माथै मावटो है। पून घणी बाजै है। बापड़ा ढांडा घणा मरैला।”
“मिनख पछै किसा बाकी रैवैला।” सेठां मुळक’र कैयो, “म्हनैं तो इसी ठाड में बूढा-ठाडा जावता ई दीसै।”
“टेम आयां सगळां नैं ई जावणो पड़ै सा, कांई बूढ़ा अर कांई जवान।” निरवाळै भाव सूं माट’सा बोल्या “कांई ढांडा नै कांई मिनख। अर मिनख पछै किसा ढांडां सूं चोखा है।” कैवतां-कैवतां माट’सा अेक’र फेर धूज्या।
माट’सा नैं धूजता देख ठंडाई री तरंग में सेठ रिखबचन्द नैं दया आयगी। पचास रुपियां री उधारी उगरावण सारू सेठां किसनियै मैणै नैं अैड़ौ मरवायो हो कै सात दिन तक मैदालकड़ी पी’र बापड़ै मैणकै नैं मरणो पड़्यो। पौर हळोतिया री वेळां गोमलै चोधरी रा बळद कुड़क कर’र सेठां आपरो ब्याज उगराणियो हो। केई बार सेठ कैवता, “माट’सा, घणी दया करै जिको पछै जावतां भिखारी हुवै। बिणज करै, जिणनैं दया कियां कठै पोसावै।” पण आज माट’सा नैं देख सेठां नैं जाणै क्यूं दया आयगी। बोल्या – “माट’सा, थारै कोट कोनी!”
माथो धुण’र मास्टर कैयो – “सा, अैस सिवाड़णो तो हो, पण...” अबै बात कीकर पूरी करणी रैयी? अेक घणो जोगो, घणो लायकी हाळो, घणो हुसियार नैं घणो पिंडत, पण आपरै आप नैं पिछाणणियो मास्टर आपरी गरीबी री बात कीकर कैवै? थोड़ो ठैर नैं खणेक में बात फेर नै कैयो – “सा यूं है, कै मनैं तो घणी ठंड लागै ई कोनी। नै सांची बात तो आ है कै अै कोट-फोट पैरणा मनैं तो सुआवै कोनी। परमातमा सगळी रितुआं आंरो असली आणंद लेवणनैं ई बणाई है। कुदरत रै बीच में पड़ै जद मिनख रो नुकसाण हुवै। कुदरत रै खिलाफ चालण सूं ई मिनख रै रोग हुवै।” सबदां रै सौदागर मास्टर आ बात मूंडै सूं तो कै दीनी, पण सरीर इण कैणै रो साथ को दियो नीं। मास्टर ऊभो-ऊभो धूजण लागो नै उण आपरा दोनूं हाथ घणै जोर सूं छाती रै लगाय लीना। वाणी रै जाळ में मिनख आपरी कमजोरी छिपाय नैं खुद नै कितरै इधकै वैम में राखण रो जतन करै!
सेठ रिखबचन्द घणी दुनियां देखी ही। बै कीं बोल्या कोनी। होळैसी’क मुळक्या, जाणै छोटै टाबर नैं तोतली बोली में कूड़ बोलतो देख मा मुळकती हुवै। पछै झट मास्टर रो हाथ पकड़’र पाछा आपरै घरे लाया, अलमारी सूं अेक जूनो, पण घणो चमकीलो धोबी सूं धुपाय रफू करायोड़ो कोट काढ्यो अर ना-ना करतां मुळक’र माडाणी ई मास्टरजी नैं पैराय दीनो।
बारै आय माट’सा नैचै सूं कोट नै निरख्यो। माखण जैड़ी नरम, कुंळी रेसम जैड़ी ऊन। चमचमाट करतो कोट, सिगड़ी जैड़ो गरमास देवै। नुंवै जैड़ो लागै जाणै आज मोल लेय नै आया हुवै। अेड़ो फिट, जाणै आपरो नाप देय नै सिवड़ायो हुवै। नुंवी फैसन री सोवण देख माट’सा रै हियै री कळी-कळी खिलगी। जापानी कपड़ै रो कोट घणो मोलो दीसतो हो। लुगाई रै हिवड़ै जैड़ी कुंळी कोट री गरमास सूं माट’सा रै चैरै माथै चमक बधगी। डील में फुरती बापरी। गरीबी सूं लड़तो, सांकड़वास में बैवतो हर मिनख पीड़ झेलण रो उपदेस देवै। हींजड़ो भांवै ई बिरमचारी! इत्ती दूर माट’सा कस्ट खमण रा उपदेस भळै देवै हा, पण कोट पैर्या पछै बांनै ठा पड़यो कै अैड़ी कड़कड़ाट करती सरदी में कोट रो हुवणो मिनख ताणी कित्तो जरूरी है।
रात रा नौ बज्या हा। सरदी में रात रा नौ कितरा मोड़ा बजै, कितरा दोरा बजै, जिको तो कोई बापड़ो वोंडो ईज बताय सकै। सदाई ज्यूं होवतो तो इत्ती ताळ में मास्टरजी कदे ई घरे पूगग्या हुवता। पण आज घरे जावण री कोई उतावळ को ही नीं। माह रै मावटै रो वायरो आज माट’सा नै डरावण री हीमत को करी नीं। सीरख-पथरणै रो हेज आज मोळो परो पड़यो हो। रोज तो इतरी ताळ में कदे ई आंतड़ा छीलजण ढूकता, पण आज जाणै भूख ई कठैई मूंडो लेय नै परी गई ही। आज तो उणां री अेक ईज मनसा ही, उण मिनखां रै सामैं सूं निकळणो, जिका उणां नै सी में धूजतो देख नै उणां रै उसूलां री मसखरियां करता हा।
तड़कै दस बजी सूं ले नै अबै सुदी बांरै पेट में धान रो दाणो को पूगो हो नीं, पण बांरै पान खावण री जबरी मन में आई, जिको वै पनवाड़ी री दुकान कानी चाल्या। ट्यूबलाइट रै दमकतै उजास में पनवाड़ी टापरै में बीजळी रो चूल्हो सिलगायां पान लगावै हो। मसीन ज्यू बींरा हाथ चालता हा, वो मिनख री सकल देख नै पान लगावण में पाटक हो। बस्ती रा सगळा ई ऊजळै गाभा अर पतळै पेट आळा राज रा नौकर – बाबू, मास्टर, पटवारी, ग्रामसेवक नै छोटा-मोटा ओदादार उण री दुकान सूं ई पान खावता हा। यां दीपता दीसता दीवां में तेल को हो नीं, वो आछी तरै जाणै हो। अैड़ा ऊजळ-धोळिया घणा जणा उण री उधारी खाय लांबा नीसर्या हा। उणरी तीखी निजरां मांय अेको-अेक आदमी नागो दीसतो हो। होठां री गैरी लाली अर फीकी मुळक रै नीचै कितरो काळजो दाझै हो, चिंतावां री कितरी भट्टियां बळती ही – ईं रहस रो उण नैं भली बिध बेरो हो।
मास्टर किसोरीलाल घणी बार पनवाड़ी कनैं जाय पेसी मांय चूनो भरवावता हा। मास्टर रै पतळै डील अर लट्ठै रै मैला गाभां कानी हीणी निजर नांख बंसी तमोळी ओळमाधोई मुळक सूं पेसी मांय चूनो भर’र पेसी पाछी देवतां थकां मन में जाणै कैवतो – “माट’सा, यूं कितराक दिन चालैला। चूनो किसो फोकट में ई आ जावै?” मनड़ै री बात मूडै सूं भली मती कैवीजो, पण चैरो गूंगो को रैवै नीं।
बंसी तमोळी रै चैरै री गूंगी बोली मास्टर किसोरीलाल रै कानां में भोंपू हुवै ज्यूं बाजतो। पण तो ई बो निसरमाई सूं नाड़की नीची नांख, फीकी मुळक बिखेर आंख्यां सूं माफी मांग’र हाथ पसार नै पेसी ले लेवतो, नै हतेळी में खासो सारो जरदो ले नै चूनो लगावण लागतो।
“बंसी, अेक मीठो पत्तो लगाइजै भाई…,” मास्टर किसोरीलाल थोड़ै उछाह सूं कैयो, “चूनो डबल, देसी जरदो, मुस्क किमाम।”
बंसी रा हाथ मसीन हुवै ज्यूं चालण लाग्या, पण निजरां मास्टरजी रै चैरै माथै मंडगी। माट’सा नै चिलचिलाट करतो कोट पैर्यां देख नै पूछ्यो – “माट’सा, काती बीत्यो, मिंगसर बीत्यो, पोह बीत्यो, नै अब तो माह रा ई गिण्या दिन रैया है। अबार कोट सिड़ावण री कांई जची।” बींरै सुर सूं अैड़ो लाग्यो, जाणै पूछ रैयो हुवै कै अैस लोटरी आपरै नांव री खुली है कांई? इतरा दिन तांई तो सूटर ई को पैरता हा नीं।
मास्टरजी खणेक थम्या। कांई पडूत्तर देवै। पछै कैयो, जाणै कोरट में कोई कदेई नईं आयोड़ो गवाह कूड़ी गवाई देवतो हुवै – “कांई करां बंसी, म्हैं तो कदेई कोट सिवड़ावण नैं दियो हो, पण सत्यानास जाज्यो इण भीमलै दरजी रो, जिण अबै सीय नै दियो, जणै के सियाळो ई बीत्यो परो है नै सिवड़ाई पण लीनी पूरा ई साठ रूपिया। नुंवों पीसो ई ओछो नईं। पण कांई करां भाई, गरज बावळी हुवै।” यूं कैय’र मास्टरजी मुळकण लाग्या। कांई ठा, इण मुळकण हेठै कित्तो मोटो बिखो छिपावण री कोसीस ही। नित-रोज छोरां नैं ‘सदा ई सांच बोलणो चाइजै’ रो उपदेस देवणिया माट’सा अैड़ो सफा कूड़ कियां बोल्या हुसी। कांई ठा’ इण हंसण लारै बांरै कूड़ बोलण सूं कळपतै हिवड़ै री बिळखण रैयी हुवै। मुळक कैड़ी मीठी, कैड़ी मुधरी, कैड़ी मोवणी हुवै। पण उण रै लारै अंतस री कितरी उकळास, कितरी दाझ, कितरो दरद हुवै, ओ कुण जाणै।
“कोई बात नईं सा, अैस नईं, तो आंवतै ई काम आसी” – बीड़ो बणाय’र देवतां बंसी बोल्यो। पछै छालिया फेर देवतां पूछ्यो – “कपड़ो कांईं भाव रो होसी सा…?”
कपड़ै रो भाव पूछतां सुण’र मास्टरजी नै कंपकंपी चढगी। मन में बैम हुयो, कठै ई इणनै ठा’तो कोनी कै कोट म्हारो कोनी, रिखबैजी रो है। कदास भाव पूछ नै म्हारी तोहीन करणी चावै! पण मुळक’र आपरो अग्यान छिपावण ताणी घणी मस्ती जतावतां थकां कैयो – “अबै भाव कुण याद राखै बंसी, चार महीनां पैली लियोड़ो कपड़ो है। म्हारो अेक खास दोस्त रैवै है दिल्ली में, उण सागै मंगवायोड़ो कपड़ो है। असल वूलन (ऊनी) है। फोरन (परदेस) रो माल है। लाई बंसी नैं कांई ठा’कै जठै-जठै मिनख में खोट हुवै बठै-बठै मोटा सबदां री कारी दे-दे’र मिनख असलियत छिपावण री कोसीस करै। खुद नैं झांसो देवै। सबदां रै सोनै रो झोळ लगा पीतळ रै माल नैं भरे बजारां चोड़ै-धाड़ै बेचै। काव्य, कळा, दर्सन, सगळा ई थोथै सबदां री जड़ाऊ थूका-फजीती है। पान मूंडै में दाब, “पीसा म्हारै नांव लिख दीजै” – कैय’र मास्टरजी झट रवानै हुया। बांरै झट जावण रै लारै सायद आ भावना रैयी हुवै कै दो-चार फेर कीं सवाल पूछ्या तो पोल खुल जासी। के ठा’ बंसी ई उधरत बाबत कीं कै देवै। कूड़ बोलण रै पिछतावै माह री सूखी बादळियां गिगनां सूं उतार मास्टरजी रै माथै थरप दीनी ही। कीमती कोट पैरण रै उछाव भाखरां रै बाळै ज्यूं झट उतार दीनो हो। मन मांय रो मांय फिटकारतो हो, “जा रै हीणा, कमीण, थारै में अर मंगतै में कांई फरक है।”
मिलणै सूं सगळां नैं ई आणंद आवै, ओ जरूरी कोनी। भोळा मनां अर सजग आतमा आळां नै देणो ई आणंद देवै। कोट पैर’र मास्टरजी आपरी डीठ में खुद नैं ई बावना लाग रैया हा। मिनख रो मन जाणै कैड़ी रसायण सूं बण्योड़ो हुवै है। विचारां रो झटको लागतां पाण आणंद लुटावणियो इमरत, बाळणियो बिसझाळ वण जावै।
घरां पूंच्या जद माट’सा मन री मार खाय सतबायरा हुवै ज्यूं घोड़ियै जैड़ी मचली मांय गुड़ग्या। मन रो सगळो उछाह मार्यो गयो हो अर उछाह बिना जीवण बोझ टाळ कांई बचै। अेकण पसवाड़ै पड़वै में पथारी जियां टाबर पड़्या हा। वां रै माथै ओढ़ायोड़ी गूदड़्यां बांसै ही। झीर-झार हुयोड़ो पछेवड़ो माथै ओढ़’र मनोरमा उठी। धणी नैं नुंवो कोट पैर्यां देख’र रगतहीणै पीळै मूंडै माथै खणेक मुळक खिंवी। आंख्यां चमकाय बोली – “ओय-होय बुढ़ापै में सौकीन बणवा रो चसको लाग्यो है। थू-थू, घणो आलीसान कोट सिवड़ायो है” – पछै आंगळियां सूं कपड़ो देख नैं कैयो – “कपड़ो जोरदार है, कांई भाव रो होसी?”
किसोरीलाल बुझ्योड़ी आंख्यां सूं उण रै सामी देख्यो। पछै होळैसीक अणमणै भाव सूं कैयो – “सस्तो ई है” अर कोट उतार’र खूंटी माथै लटकाय दीनो।
“तबियत ठीक कोनी..? रोटी खाय लो।”
“भूख कोनी।”
“चाय बणाय दूं..? ताव तो कोनी?” मनोरमा धणी रो पुणचो पकड़’र देख्यो, “नईं हुवै तो माथै री गोळी लेवो परी।”
किसोरीलाल नाड़की हिलाय’र ‘ना’ दे दियो। मूंडै सूं हरफ ई कोनी बोल्यो।
धणी नैं अणूतो ई बेराजी जाण मनोरमा मूंडो चढ़ाय टाबरां भेळी सोयगी। दो-अेक बळती निसासां लेय ओढ़णै रो पल्लो आंख्यां रै लगायो अर रजाई सूं मूंडो ढक लीनो। छः टाबरां री मा रै इण सूं बेसी उछाह कोनी रैवै।
नींदरड़ी में नक्की कोई-न-कोई जादू होवै जिको मिनख री सगळी चिन्तावां नैं दूर कर सकै। रात खासी जेज तक पसवाड़ो बदळ्यां पछै माट’सा नै घणी दोरी नींद आई ही। दिनूगै उठ्या जद मन उछाह सूं भर्योड़ो हो। रात रा कीं छांटां आई ही। ओळा भी पड़्या हुसी। सवार रा तीर जैड़ी तीखी हवा चालती ही, जाणै हेमाळो हाल्यो हुवै। कोट पैर्यां सूं माट’सा रै दांतां री किटकिटाट आघी हुई। हंसता-बोलता खाय-पीय पोसाळ गया जद बै ई बै दीसै हा।
“अरे किसोरीलालजी..! आज तो भायला बींद हुवै ज्यूं लागै है।”
“प्यारा, अैस तो मास्टरपीस कपड़ो मोलायो है।”
“जिगर, कांई भाव रो कपड़ो है...? डी० सी० एम० री वूलन टैरैलिन दीसै।”
“अरै बगना, डी० सी० एम० रो कठै, ओ तो मफतलाल ग्रुप रो लागै है।”
“कठै सिवड़ायो किसोरीलालजी सा..? इणनैं केवै-सिलाई!”
“थू-थू। थुथुकारो नांखूं भाईड़ा, कांई ठा’ निजर लाग जावै तो।”
“सासरै सूं आयो दीसै, इतरो मूंघो कपड़ो मोल लैवै जैड़ो तो तनै मा जण्यो ई कोनी।”
पोसाळ रा सगळा ई साथी कोट री तारीफ करै हा। कपड़ो अैड़ो चमकै हो कै माथै आंख ई को टिकती ही नीं। केई जोड़ी ललचाई निजरां कोट माथै टिकी ही। किसोरीलाल हंस-हंस नै भाव-ताव अर सिलाई रै सवालां रो जवाब देवतो हो। रात रो कसकतो-तड़पतो मन जाणै ओळां री मार सूं मरग्यो हो। जे थोड़ो-घणो जीवै ई हो तो मुधरी बातां अर बिखरती हंसी रै सामीं उण बायरै रै झीणै सुर नैं कुण सुणै? वेळा रै आंतरै में मन रा घाव भरण री अणूती ई खमता हुवै है।
सांझ रा माट’सा सेठ रिखबचन्द रै अठै टाबर पढ़ावण नैं गया जद कोट ठठायोड़ो हो। रिखबोजी रा तीन टाबर माट’सा कनै भणता हा। बडोड़ो माधू सातवीं में हो, छोटोड़ो अमियो तीजी में। अेक छोरी ही हेमलता, बा पांचवीं में भणती ही। टाबर माट’सा रै मूंडै लाग्या हा, जिको गुरु-भाव कीं ओछो ई रैवतो हो। मास्टरजी नैं देखतां पाण हेमलता कैयो “ओ हो जी माट’सा, आज तो कोट पैर नै पधार्या हो। इण में तो आप घणा फूटरा दीसो हो सा।”
अमियै कैयो, “ओ तो पापाजी रो जूनोड़ो कोट दीसै, कांई सा?” फेरूं थोड़ो थम नै कैयो – “रातै तो आप ठंड में धूजता हा सा। पापा घणो आछो काम कियो है, सा।”
माट’सा नै लाग्यो, जाणै किण ई बां नै सिरै बाजार में नागा कर दिया हुवै। कोट रो कूळो कपड़ो लोह ज्यूं करड़ो पड़’र खुबण लाग्यो। बो सांकड़ो पड़’र माट’सा नै कसण लाग्यो। माट’सा रो जीव घुटै, जाणै सांस हमैं नीसरै कै हमैं नीसरै। उणां नै लाग्यो कै जे बां इण कोट नैं झट सूं उतार नै नईं नांख्यो तो बां रो जीव निकळ जावैलो। कोट सिकुड़तो जावै हो अर उण री कसण जोरदार हुंवती जावै ही, जाणै कोट नई कोई राखस रो पंजो हुवै। बां नैं लाग्यो, जाणै टाबरां री निजरां में निरादर रो जैर झरतो हुवै। घणी दोरी बांरै मूडै सूं बोली नीसरी –“किताबां काढ़ो।”
टाबर सदां ई ज्यू माट’सा रै कैणै माथै कोई तवज्जा कोय दीनी नीं। बस्तै में हाथ हिलावती हेमलता कैयो – “बाई रै, कितरी ठंड पड़ै है। माधू भा, आज पापा घरे आवै जरै कैजो जिको मोटा भाई रो अेक ऊनी पैंट भी माट’सा नै देय देवै। देखो कोनी, लाई ठंड मरै है।”
किसोरीलाल नैं लाग्यो जाणै टाबरां उण रै गाल माथै कस नैं थप्पड़ मारी हुवै। वो गळगळो हुयग्यो। मूंडै सूं कीं बोल ई निकळयो कोनी। नित ज्यूं टाबरां नैं छाना रैवण सारू धमकावण री उणरी हिम्मत कोय पड़ी नीं। उण रै हियै रा किंवाड़ उघड़ग्या। मांयलो मन धिरकार देवण लाग्यो – “फिट तनैं, हीणा, कमीण, थारै अर मंगतै में कांई फरक!”
बो मार खायोड़ै, बिसहीण, डोकरै सांप दाईं कूद अर उठ्यो। कोट उतार’र खूंटी माथै लटकायो अर टाबरां नैं कैयो – “काल सूं हूं भणावण को आऊं नीं, थारा पापा घरे आवै जद कै दीजो।” अर तुरत घर सूं बारै निकळग्यो।
बारै सणसणाट करती उतराधी हवा बाजै ही। बीं हवा सूं सरीर बींधीज रैयो हो, पण माट’सा नैं लाग्यो, जाणै कोई जंग जीत’र आय रैया हुवै। जाणै कोई घणमोली गमीज्योड़ी चीज पाछी परी लाधी हुवै। सरीर ठंड सूं कांपै हो, पण माट’सा रा हाथ छाती कानी को गया नीं। तन-मन नैं धुजावण आळी हवा खुद रै आपै में आवण सूं बांनै फागण री हवा जैड़ी मुधरी-मीठी लागै ही, जाणै संजीवण हुवै।