“रामारे नै लडालडा कै तीन कौडी को कर राख्यो है। दो आंक पढ़ जातो तो मिनख हो जातो पण ई में तो धूळ का दाणा ही कोनी। उलटा दूसरां कै टाबरां नै मार-मार कै सांड हो रयो है।” एक तीसेक बरस की लुगाई दस बारह’क बरस कै छोरै नै घींस कै पंडित जूंहारमलजी की पोळी कानी लारी है।
रोळो सुण’र पंडत जी उतावळा-सा पोळी सूं निकळ्या अर बोल्या—“धापी, के बात है?”
“बात क्यांकी है भाया, गांव छोड़णो पड़सी। थारो किसनियो छोरे नै मार मार कै धेलो कर दियो। एक दिन की बात हुवे तो क्यूं कैणो-सुणनो भी कोनी पण आ तो रोज की बात होगी। छोरे नै घरा के बारे ही कोनी निकळण देवे। आ बी कोई बात है। टाबर तो घणा ही देख्या पण ई के आगे तो हद करगी।
पंडत जी बोल्या—”साळै” नै मनै पकड़ा, बोळा दिन हुग्या ई नै ओळमो ल्यातां।” पंडत जी छोरै नै पकड़ कै दो सागेड़ा-सा धोल जमाया, छोरा बार-तोबा करण लाग्यो।
छोरै को रोणो सुण’र पंडताणी बारै आई और छोरै नै पिटतो देख’र बोली—“क्यूं छोरै नै मार-मार के न्याल्हो करो, एक छोरो है आंख्यां आगे जको भी कोनी सुहावे। अयां तो कसाई भी कोनी मारे।”
सेखावाटी रै उतराध में बामणवास गांव, जका में जुहारमलजी जिस्या मोटा पंडत रैवै। पंडितजी री ओस्था आही कोई चाळीस-पैंताळीस के बीच में होगी। पतळो-दुबळो इकहरो सरीर, गोरो रंग, तीखी नांक, बड़ी-बड़ी मूंछ्यां जकी सदा ही नीचै नै लटकती रैवै। ठोडी क्यूं आगे नै निकळेड़ी, बड़ी-सी मुंहफाड़ हंसण सूं दूर तक फैल जावै।
गांव रै बारै ऊंची जमीन पर पंडत जी रो सांगोपांग मन्दर बणेड़ो है जके रै चारूँ मेर परकोटो खिंचेड़ो। उतरादो मन्दर रो बारणो, बी रै डावे हाथ नै पंडत जी रा चार-पांच पक्का कोठा, आगे पक्की ईटां री पोळी जके पर छान बंधेड़ी। पोळी कै आगै चूंतरो जीने गोबर सूं लीप’र टंच कर राख्यो, जी पर गांव रा ठाला मिनख गप्प राळै, चौपड़-तास खेलै, चिलमां पीवैं। सुबह-स्याम पण्डत जी एक किनारे बैठ संध्या कर लेवै, गायत्री रा पाठ पढै।
पंडित जी संस्कृत रा चोखा पढ़्या- लिख्या नेमी धरमी आदमी। ब्याव सावे में, औसर-मौसर में कन्नैं-कन्नैं का मिनख पूछण नै आवै। लोग परदेस जावै तो बिना पंडत जी नै पूछ्यां मुहरत कोनी निकळ सकै। ठाकरां की दियेड़ी दो सौ बीघा धरती खावै अर मोज मांणै। रोज गांव में सूं सीदो आ जावै जकै सूं घर को खचों चालै, मौके-ठौके और भी बापरत हो जावै। कहणै रो मतलब ओ के पंडतजी कै रामजी राजी होरया, सै बातां का आगडा ठाट लाग रया।
पंडतजी कै दस-बारैक बरस को छोरो। जनमाठैं नैं जनम्यो जकै सूं किसनो नाम राख्यो। किसनो आपरी उम्र के छोरां में सिरताज पण पढण-लिखण में बैरंग। पंडतजी माथो पटक रहग्या पण छोरो तो माई को लाल एक आंक भी सीख्यो कोनी। देखण आळा कहता’क देखो इस्या पढ्या-गुण्या पंडत जी के इस्यो बेटो। पण कोई के करै, आ सगळी भगवान री लीला है।
कोई दूसरो कैवतो—”भाई, ई में बेजां के है? बाप जिस्या बेटा कठे पड़्या है। जीं रो बाप समरथ हुवै वींरा बेटा नालायक निकळ ही जावै। लोग कैवै भी है कै बाणासुर के बल निपज्यो अर उग्रसेन के कंस।”
पंडत जी कई बार छोरै नै डरा-धमका कै सीदै रास्ते घालण की सोची पण छोरो तो टस सूं मस ही कोनी हुयो। आखता हो’र पंडत जी लैर छोड़ दीनी। छोरो कोड़्यां फेंकतो, चरभर खेलतो अर बराबर आळा कै झापट मार घरां नै चल्यो आतो। घरां सूं पंडताणी जी सूं बात करण री कीं की हिम्मत ही।
काती रो महिनो। दोनूं बखत मिलता हा। लोग बागां भेळवाड़ काड लीन्यो। ढांडां कै आणै सूं धरती गुधली-गुधली हो रही। सूरज की जाती किरणां तीतरपंखी बादळी में सूं झांकती कसौटी पर सोने की रेख-सी चिमचिमा री है। छिपते सूरज नै देख’र पंडत जी नै आपरी ढळती उमर रो ख्याल आयो। बचपन रा हंसी-खुसी रा दिन याद आया। मदमाती जवानी रा सपना ताजा हुआ। अचानक रंग पलट्यो। सपनो टूट्यो। असलियत सामने आई। छोरे खातिर जण-जण रो ओळमो अर पंडताणी जी रो जिकर पंडत जी उदास होग्या। राजा भरतरी रो बैराग सतक याद आयो। माया-मोह रो झूंठो जंजाळ दीख्यो। ढळती उमर देखर घणो पछतावो कर्यो। अगली जूण सुधारण री घणी चिंता लागी।
सोचतां-सोचतां बैठ्यां-बैठ्यां रात होगी। पंडत जी नै पूछण कोई कोनी आयो। पंडताणी स्यात गीतां में गई ही। पंडत जी रै हिड़दै में बैराग रो जोर बैठ्यो। राजा भरतरी री बातां याद आई। सारी घर गिरस्ती रो मोह टूटग्यो। रात रै बारै बजे किसन अर राधा (किसन री मां) रो मोह छोड़, परमात्मा सूं नातो जोड़ण वास्तै पंडत जी पांच-पचीस रिपिया ले’र बिना आगो-पीछो सोच्यां भीर होग्या। पंडतजी रो मन भोत ऊंचे स्तर पर जा रह्यो हो।
धर मंजलां धर कूंचां। पंडत जी चालता-चालता जयपुर री हद छोड़’र बीकानेर री थळी में जा पहुंच्या। चोखो सो कस्बो देख’र गेरुआं कपड़ा रंगा’र भगवां भेस कर लीना अर गांव कै बारै धूणी रमाई। थोड़ा ही दिनां में चोखळै में पुजीजग्या। आसानन्द जी (पंडत जी रो साधूपणे रो नाम) कहवै सो बरमा की बात मानी जावै। भगतां को मेळो सो भर्यो रैवै। सेठ साहूकार चीजां रो भंडार भर्यो राखै। गरीब-गुरबां वास्ते आसानन्द जी रो दरवाजो सदा ही खुलो रैवै। कहणै रौ मतलब ओ के आसानन्द जी पूरा सिद्ध पुरस पहुंचेड़ा जोगी होग्या। कोई सन्तान वास्ते तो कोई आपणा रोग दूर करणै वास्ते सदा ही बांकै बारणै बैठ्या रैवै। वै रोज ही लोगां नै कहवै के भई मेरे कनैं क्यूं भी कोनी, मैं तो खुद भगवान रो भजन करूं हूं। सुख दुख तो पहलै जनम रा फळ है सो भुगतणा ही पड़सी। पण लोग मानै जद ना। कूंपासर का महन्त जी भी बांकी बड़ाई सुणी। बांकै मठ कै नीचै लाखां री जागीर पण गादी नै संभाळण वास्ते कोई भी कोनी। चेला-चांटी घणा ही पण सगळा ही खावै-उड़ावै अर मलार करै। रोज सुलफे अर गांजे की तुतकार उड़ै। महन्त जी आपरी जिन्दगी रो चौथोपण देख’र सदा ही दुखी रैवै के मेरे फेर गादी को मालक कुण? जे आं मोडियां नै गादी संभळा दयूं तो सौक्यां नै पींदै बैठा देसी। धरम रै काम रो पीसो भांग-गांजे में उड़ जासी। सोचतां-सोचतां महन्तजी नै आसानन्द जी रो ध्यान आयो अर वां सूं मिलण नै चाल पड़्या।
बड़ी मुसकल सूं आसानन्द जी मठ रो भार संभाळवा नै तैयार हुआ। संजोग रो पीवणो अर बात रो चालणो। समय पर कूंपासर रा महन्त जी गोलोकवासी हुआ। आसानन्द जी मठ रो काम संभाळ्यो। सारो धन परोपकार में लागणो सरू हुओ। मठ में गांजे-सुलफे री जगां होम हुवण लाग्या। गरीब छोरां नै पढण वास्ते मठ सूं खरचो मिलण लाग्यो। वेद-सास्तरां रो सार जाणन वास्ते मौके-बेमौके दूर-दूर रै पंडतां री सभा हुआ करती, जी में आत्मा-परमात्मा री गुत्थियां सुळझाई जाया करती। कूंपासर मठ रो नांव देस रै कूणै कूणे में होग्यो। लोग कैवता—आसानन्द जी साच्याँई धरम रा अवतार है। ई कळजुग में इग्या सिद्ध पुरस बड़े भाग सूं ही मिलै है।
पोह रो महीनो। डांफर बाजै। हाड कांपै। खिरगौस्या बिलां में बड़ग्या। तीतरिया डाळयां में लुकग्या। कोडियो पाळौ पड़ै। खेजड़ा कान गेर दिया। फोगां सिर नीचो कर लियो। लोग सोने रो टको दियां भी बारै कोनी निकळै।
महन्त आसानन्दजी सुनपात में पड़्या बड़बड़ावै। चेला-चांटियां रो जमघट लागर्यो। कदेई कहवै—“चील चील हाडी अर भूंभर भर्यो खेलांगा, आंधो भैंसो अर लुकमिंचणी तो छोर्यां का खेल है:” तो दूसरां बोलै— “नहीं भाई लूणक्यार अर कोल कितरणी मांडो! “थोड़ी देर में आत्मा परमात्मा की बातां करण लाग जावै तो फिरतां ही मलजुद्ध रा अखाड़ा छेड़ देवै।
सगळा जणां सूंठ अर अमल री मालिस करण में लागर्या। आधिक घंटे में महन्तजी चेतो कर्यो, पाणी मांग्यो। उखड़तो सांस बैठ्यो, लोगां नैं बैठण रो हाथ सूं इसारो कर्यो। सगळा जणा आराम कर्यो। महन्त जी आंख्यां मींची, लोग समझया मीट लागरी है। मन्दर रो दरवाजो याद आयो। ठाकुर जी री मूरत दीखी, गाय बाछी हांडती दीखी। राधा री हंसती बत्तीसी सामै आई। छोरै किसनियै री कुचमाद आंख्यां आगै नांचण लागी। पोळी आगे ठाला मिनखां री गल्ल अर चौपड़ री स्यारां चोनजरां हुई। पींजरो हाल्यो, दिल जगां छोड़ी। आंख खोली। लोग नजदीक आया। महन्त जी बोल्या—” भई थे लोगां मेरी भौत सेवा करी, भौत दुख पायो, अब मेरो आखरी बख्त है, मेरी एक बात मानो तो मेरो जी मोक्ष पावै।”
लोगां देखी महन्त जी बहकै तो कोनी क। आपस में सुरसुराट हुई।
महन्त जी बोल्या—“मैं होसहवास में हूं, थे चिन्ता मत करो। हांमळ भरो तो मैं मेरी आखरी बात कहूं।”
सगळा हाथ जोड़’र बोल्या—“महाराज! आपरै वास्ते जान हाजर है।”
“तो मनैं बामणवास ले चालो। ओ गांव सिंडोल सहर कनै सेखावाटी में है।”
लोग बोल्या— “महाराज! पहलां आप थोड़ा ठीक होल्यो तो आराम सूं पधारोला।”
महन्त जी बोल्या—“बाचा मत चूको। आखरी बखत दियेड़ा बचन छाड्यां नरक में भी जगां नहीं मिलैली!”
लोग कांप उठ्यां। पालकी ले’र चेला-चांटी त्यार हुआ। महन्त जी पालकी में सवार हुआ। भगत लोग पालकी नै लियां भाग्या जावै। डांफर में सुनपात को दौरो बढ़ग्यो। ऐल बैल बात करै पण आगे बढण आळी धुन कोनी छोड़ै। बीमारी बढ़ती गी, पण महन्त जी रो हुकम टाळण री हिम्मत कैंकी भी कोनी।
आखर बामणवास रो कांकड़ आग्यो। चेला बोल्या—“महाराज बामणवास रो कांकड़ है।”
महन्त जी चौंक्या। सारे सरीर री सगती लगार धीमें सैं बोल्या ‘हूं’, आगे बोलण री सगती कोनी रही। जबान लड़खड़ाण लागी। चेला घबराया। पालकी रोकी। पालकी मैं देखे तो महन्त जी बेहोस।
साथ आळां को मुंह उड़ग्यो, हवा पाणी कर्यो। महन्त जी थोड़ी-सी आंख खोली अर जोर लगा’र बोल्या ‘राधा किसन’, अर पंछी पींजरो छोड़ग्यो। साथ आळा बोल्या “धन! धन!! आखरी बखत भी भगवान रो नाम मुंह से कोनी छूट्यो।” पण बां में सूं आ कुण जाणतो के ओ भगवान रो नाम है के आपरै लुगाई-टाबरां री ‘हुंसेर’।