आज पैलो दिन हो। म्हैं बड़ा बाबू री टेबल रै सामैं ऊभो हो। बाबू थोड़ी देर सूं फाइलां सूं माथो ऊंचो कर्‌यो अर म्हनैं बैठ जावणै रो इसारो कर्‌यो। बै पाछा फाइलां में गुमग्या। फेरूं भी म्हारा सूं बात छानी नीं रैयी कै बै म्हनैं चोर-निजर सूं देखै हा कस्या जंगळ सूं उठनै आयो है।

“आप ही नूवां बावू हो?” निजरां हाल भी फाइल में ही।

“जी..!” धीमै-सी म्हारी आवाज ही।

“बी० अे० कद करी?” अबकै बांरी आंख्यां म्हारा पै जम्योड़ी ही।

“जी, इण साल ही।” म्हैं उथळो दियो।

इणरै पछै बांरा केई सवालां रो सिलसिलो चालतो रैयो अर म्हैं जवाब देवतो रैयो। म्हारी पारिवारिक, सिक्सा सम्बन्धी अर दीगर जाणकारी बै पूछता रैया। म्हैं बिना हिल्यां-डुल्यां सब रो उत्तर दैवतो रैयो।

वै तुस्ट हुयग्या तो माथो हिलायो अर चपड़ासी नैं आवाज दी “दयाराम! बाबू राधारमण नैं…।”

लगन सूं काम कर्‌यां जावो, कोई दिक्कत आवै तो कैयज्यो! वै म्हनैं राधारमण रै सुपर्द कर दियो।

हाल म्हनैं राधारमण रै साथै ही काम करणो हो। बै बड़ा हेत सूं आपरी फाइलां म्हारी आडी सिरकाई अर कुछेक आदेस दिया। पछै सिगरेट रो पाकिट खूंझ्या सूं निकाळता म्हनैं पूछ्‌यो “सिगरेट चालैली?”

म्हैं नकारात्मक माथो हिलायो।

“बुरी बात है, पीवोला नीं तो पिलावोला किंया?” बै जबरदस्ती हंसता थका बोल्या। ऑफिस में बांरो हंसणै रो तरीको देख नै म्हैं अनुमान लगायो कै बड़ा बाबू वाकई नरम दिल मिनख है। थोड़ो परचो तो पैली भेंट में हुयग्यो हो।

साम रा चार बज्यां दयाराम आयो अर बोल्यो कै बड़ा बाबू याद करै है। म्हैं बेगो ही बांरै कनै जाय पूग्यो।

वै म्हनै सामैं बैठायो। म्हैं सोचण लागो, उमर कोई पचास री हुवैली। माथै रा केस कुछ छीदा-छादा पण, गंजा भी नीं। दूबळो डील, झुर्रीदार चैरो, जिण पै प्रेस नीं हुय सकती ही।

बां पूछ्‌यो “काम में कोई दिक्कत तो नीं आई?”

“जी नहीं।” म्हैं सालीनता सूं बोल्यो।

“अच्छा..!” थोड़ी ताळ सूं फेरूं बोल्या “दफ्तर बन्द हुवण आळो है थांरै खावणै-पीवण रो..? थे म्हारे घरां ही चालो!”

“जी नहीं। आप क्यूं तकलीफ देखो?” म्हैं संकोच सूं कैयो।

वै नीं मान्या।

थोड़ी ही बेळ्यां में बांरै घरां पूगग्या। दूजी मंजल पै वांरो रैवास हो। घर बस यूं जूना टाइप रो घरूंदो मात्र। अठीनै-बठीनैं लटकी ऊटपटांग तसबीरां आकर्सण री ठौड़ भद्दापणो जणावै ही। अेक चरमर करती कुरसी पै म्हनैं बैठायो अर जोर सूं चिल्लाया “शरण..!”

अेक सोडसी आय ऊभी हुई अर चुपचाप बाबूजी नै देखण लागी। बडा बाबू बींनै चाय रै वास्तै कैयो।

म्हैं नटतो ही रैयग्यो।

चाय रै पछै घड़ी देखी तो साढ़ी छः बजग्या हा। सायत् वै म्हारो मकसद जाणग्या हा। बोल्या “हाल रुकणो है भोजन करनै जावज्यो।”

बां रै कैवणै सूं शरण दो थाळ्यां परूस नै ले आई। फरस पै दरी माथै ही म्हे बैठग्या। शरण चुपचाप भोजन परूस रैयी ही। म्हैं नीं समझ पायो कै बा बड़ा बाबू सूं भी नीं बोलै ही क्यूं? सायत् म्हारै कारण सरमावै ही, फेरूं भी बा मौन आग्रह सूं परूसै ही। म्हारो ध्यान बीं में लाग्योड़ो हो। बड़ा बाबू री निजर्‌यां चुराय नै वीं नैं देख लेवतो बींरो सुघड़ डील, सौन्दर्य रो फूठरो संयोजण।

बड़ा बाबू जाण नै भी अणजाण बण्या रैया।

बांरो वैवार म्हनैं घणो हेताळू लाग्यो। बीं दिन रै पछै केई बार बांरै घरे आवणो-जावणो रैयो...अकसर रोजीना ही। बांरा परिवार में कुल तीन मिनख हा बै, माताजी अर शरण।

माताजी भी घणी बेगी म्हारै प्रती हेताळू हुयगी ही। बाबूजी नीं हुवता तो भी वांसूं बातचीत हुवती ही। परिवार रा किस्सां रै सागै बांरी बात शरण री सगाई पै आय’र अटक जावती। बांनै दरद हो कै कोई ओपतो डावड़ो मिलै नीं है।

अर म्हैं सोचतो हो के म्हारा में कांई खामी है?

अणजाण्यां ही म्हैं शरण नैं चावण लागो हो। बींरी झांकती आंख्यां भी म्हनैं स्वीकृति देय दी ही।

अेक दिन म्हनैं विस्वास नीं हुयो कै बाबूजी शरण रा ब्याव रो प्रस्ताव राखेला। म्हैं कांई सोच भी नीं पायो नीं जाणै म्हैं क्यांन कैय दियो “आप पिताजी सूं बात कर लेवो।”

“वो सब हुयग्यो है, थांनैं तो अेतराज नीं है?” बै बोल्या।

“जी नहीं।” म्हारो नान्हो-सो उत्तर हो।

वै पुसब री दांई खिलग्या। म्हारी पीठ थपथपावता बोल्या “बेटा, म्हारो बोझो हळको कर दियो। अेक मोटी समस्या सुळझती जाय रैयी है।”

जावती बेळ्या म्हें शरण नै देखी। वा लजावै ही, सायत् बींनैं सब मालूम हो। मौको देखनै म्हैं बोल्यो “अबै तो राजी हो?”

बा लजावती भागगी।

बाबूजी म्हारा पै घणा महरबान हा। बीं दिन राधारमण पूछ ही लियो “कांई भाई, कस्यो जादू कर्‌यो है।”

म्हैं धीमै-सी मुळकतो बोल्यो “कांई भी तो नीं।”

“कुछ तो है ही” बै माथो हिलावता बोल्या “रोजीना घरे भी तो जावो हो..?”

“यूं ही जाण-पिछाण राखणो बुरो नीं है।” म्हनैं बांरो सवाल बुरो लाग्यो।

“हां, पण निजर कुण पै है गूंगी पै..?” भद्दापणा सूं दांत निकाळता बै बोल्या।

“गूंगी कुण..?” म्हैं इचरज सूं पूछ्‌यो।

“अरै थे नीं जाणो?” बै भी इचरज कर्‌यो “भाई, बाबूजी री इकलौती बेटी, बापड़ी सुन्दर है, सुसील है, पण…।”

“कुण शरण..?” म्हनैं विस्वास नीं हुयो।

“हां, सायत् शरण ही है बींरो नांव..!” बै कैयो अर अजीब सी निजर सूं देखण लाग्या।

म्हारा सूं नीं कैवतां बण्यो अर नीं सुणतां। म्हैं खामोसी री सींव नैं पार करग्यो हो। म्हारा हिड़दा में अन्तरद्वन्द्व रुकै नीं हो। माथा में हथोड़ा री दांई राधारमण रा सबद गूंजै हा “गूंगी..!”

बाबूजी रो उदास अर उतर्‌योड़ो चैरो आंख्यां रै सामीं आयग्यो। बांरा बोल भी “बेटा, म्हारो बोझो हळको कर दियो। अेक मोटी समस्या सुळझती जाय रैयी है।”

म्हैं समझ नीं पावै हो कै म्हैं वा समस्या सुळझा भी सकूंला या नीं...बाबूजी रो विस्वास...वांरो हेत...शरण...बींरी आंख्यां री बा...म्हैं नीं जाणै कांई सोचै हो।

सिंझ्या रा दयाराम नैं भेज नै बाबूजी बुलायो। म्हारो मूंडो देखनै बोल्या “उदास हो…?”

“जी नहीं।” म्हैं संभळतो थको बोल्यो।

शरण चाय ले आई। म्हैं घणी-घणी बातां कैवणी चावै हो पण कांई भी नीं कैय पायो। अेक अणजाणी-सी चुप्पी म्हनैं घेर ली ही। म्हारा होठ सिलग्या हा शरण री मासूम सूरत म्हारी आंख्यां में घूमै ही। बाबूजी नीं जाणै कांई-कांई कैवै हा पण, म्हारै चारूंमेर अेक चुप्पी मंडरावै ही।

शरण री पर्याय चुप्पी…!

स्रोत
  • पोथी : आज री राजस्थानी कहाणियां ,
  • सिरजक : विनोद सोमाणी 'हंस' ,
  • संपादक : रावत सारस्वत, प्रेमजी ‘प्रेम’ ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली ,
  • संस्करण : प्रथम
जुड़्योड़ा विसै