जिण गांव में चौईस घंटों में अेक इज बस आवती हुवै अर बा ई आगै सूं ई ऊपर-नीचै पूरी भरीज्योड़ी, उण बस में चढणो ई घणै हिम्मत रो काम! पछै सीट मिलणी तो भगवान मिलणै दांई दोरी।
दूजी सवार्यां री गळांई म्हैं ई कोई घंटां भर सूं बस नै उडीकतो हो। जे आज बस नीं मिली तो गई पाछी काल दिनूगै तांई री, सो बगतसर ठेसण माथै आय’र बैठेग्यो हो। रोजीना री गळांई आज ई अणूती भीड़ ही अर ज्यूं ई आगै सूं बस रो होनं सुणीज्यो कै मिनख आपो-आपरा पोटका-सामान संभाळणो शुरू कर दियो अर बुंडेर री पाळ सूं मुड़तां ई तो जाणै सांम्ही दौड़ण लागग्या। बस थमै-थमै जितरै तो मिनख बस में घुसणा अर बस माथै चढणा शुरू हुयग्या हा।
म्हैं ई धक्का-मुक्की करतो बस में घुस्यो अर गैलेरी में ऊभो हुयग्यो। अेक हिचकोळै सागै बस स्टार्ट हुई अर सवारयां नै आपस में अफळावती बहीर हुयगी।
कनै बैठोड़ा वीरजी माड़सा नै थोड़ी दया वापरी अर उणा थोड़ा खिसक’र म्हारै बैठण री जागा बणाई।
—सिध पधारोला सा...?
—समदड़ी।
—समदड़ी ठीक, गाड़ी तो मिल जावैला?
—देखो राम है। महीनै में पच्चीस दिन तो मिला देवै है...।
—कांई टेम हुयो?
—नव बजिया...।
बस खारा मांय सूं हुय’र निकळै ही। धूड़ रा गोट खिड़की मांय सूं बस में भरीजण लाग्या। घर सूं अप-टू-डेट बण’र निकळ्योड़ा छोरां री पेंटां अर बुसट्टा में धूड़ जमण लागी। उणारा माथा धूड़ सूं भरीजण लाग्या। हाथ में पकड़्योड़ा बेग माथै ई धूड़ जमण लागी।
—बारी बंद कर दै नीं भाया! धूड़ आवै....। बारी कनै बठ्योड़ा छोरां नै किणी कह्यो। बारी कनै बैठ्योड़ै छोरै आपरा लांबा-लांबा केस झाड़तां लारै देख्यो अर पाछो आपरी धुन में खिड़की से देखतो रह्यो।
—आप देखावो सा, उण छोरा रै बुसट्ट रो कॉलर कैड़ो लगायोड़ो है। वीरजी माड़सा कह्यो।
—किसा छोरा रै?
—वो सांम्ही बैठो है नीं, तीजी सीट माथै।
—हा, देख्यो। म्हैं बठीनै देखतां कह्यो।
—कांई फैशन आई है, देखो नीं सा। कॉलर में सळ भर्या है, लुगायां मगजी लगावै नीं ज्यूं...
—हमैं तो छोरां अर छोर्यां में कीं फरक ई नीं रह्यो...।
—इसा कॉलर लगायां सूं फायदो है सा। कनै बैठ्योड़ा देवोबा बोल्या—अेक तो कपड़ो घणो चाइजै, दूजो मैल भरीजै तो ई दीखै कोनी...।
—हांऽ। फेर जुंवां हुवै तो ई कॉलर री मगजी में दब्योड़ी पड़ी रैवै। वीरजी माड़सा बात जोड़ी।
—सांची कैवो। हमैं तो फैशन ई इण तरह री बध्यां जावै। हमैं आप देखावो के इण तरह री धूड़ रा गोट में ई छोरा बेटा कपड़ा झाड़ै। अेक जोड़ी तो कपड़ा राखै अर फैशन करै अणूती।
—बो तो फेर ठीक है पण पेट में भूखां मरै अर सिगरेटां रा धुवां काठै। भूख लागै तो पचास ग्राम सेवां अर चाय सूं दिन काढै। हमैं इणानै पूछो कै दोय रिपियां रो सेवां नीं खाय’र रोटी खाय लो तो पेट तो भरीज जावै...।
—साची कैवो सा। सिगरेट रा ई आठ आना लागण लागग्या। पेट में भूखो मरणो कबूल पण सिगरेट तो पीवणी इज...।
—अरे सा हमैं कांई पूछो। छोर्यां पण किसा कम पग छोड्या है।
—हां सा। कांई तो पहरावो बिगड़्यो है अर कोई खान-पान। अर मरजादा तो बिगड़ी पछै बिगड़ी इज बिगड़ी। उणा बात में हुंकारो भर्यो।
— अेक बात है सा। हमैं तो गांव ई बै गांव नीं रह्या जिका पैली हा। मिनखां रो राम मरग्यो। म्हारी देखणी-देखणी में इतरो बदळाव आयग्यो कै...।
—बदळाव कांई, मिनख-मिनख रो बैरी हुयग्यो। काल तांई जिका भाई-भाई हा, आज अेक-दूजै नै मारण नै उतर्योड़ा है। आप करमावास कनै हुयो जिको नीं सुण्यो?
—हां, सुण्यो सा। चालती मोटर में दोय मोट्यार आगै ऊभा हुया अर दोय लारै। पछै मोटर नै मोड़ाय दी उजाड़ मारग माथै। कोई कोस भर माथै जाय’र ऊभी रखाई अर पछै गोळ्यां सूं धड़ाधड़...घड़ाधड़...
—अरे राम!
—मिनखां में कळबळाट मचगी। टाबर-लुगायां कूकण लाग्या। पण उणानै दया कठै। उणारै तो भाटा रा काळजा। पलक झपकै जितरी जेज में तो लोही-ई-लोही। हमें उणानै पूछो कै थांरै लोही अर इणा रै लोही रा रंग में कोई फरक है? कांई मिलणो है आं लुगायां, टाबरां अर मिनखां नै मारण सूं...?
—अरे सा। उण दिन पदमाराम रै घर रा लोग टी. वी. देखै हा। अेक जणो आय’र दरवाजो खटखटाबा लाग्यो। पदमाराम री जोड़ायत उठ’र आडो खोल्यो तो धड़ा-धड़...धड़ाघड़...।
—ठाह नीं किण बगत, किण भांत मार नांखै, कीं ठाह ई नीं पड़ै। मिनख कितरो ओछो बणग्यो है। उणारै वास्तै मिनख नै मारणो माछर मारण सूं ई हळको काम है।
—गांव पधारता हुवोला?
—हांऽ। खासा दिन हुयग्या हा। अबार दोय-तीन महीनां सूं गईज्यो ई कोनी। सोच्यो, काल रविवार है, घरां जाय आवूं।
—ना, ठीक कर्यो। हमैं आप देखो नीं, बगत कितरो माड़ो आयग्यो। दिन आथण पछै घर सूं बारै नीं निकळ सकां। धवळा दिन रा ई कांई भरोसो किण बगत कोई आडो खड़कावै अर देखतां ई-देखतां गोळ्यां सूं खतम कर नांखै...।
—हांऽ टेम कितरी खराब आई है। म्हारी देखणी-देखणी में गांव में किणरै ई आधी रात रा ई काम पड़तो तो झट दौड़’र जावता। पण हमैं... हमैं तो भलांई पड़ोसी हाका कर-कर’र मर जावै पण मिनख आडो ई नीं खोलै।
—गांव-गांव में, घर-घर में खार भरीजग्यो माड़सा। मिनख जात अर धरम रै खांचां में बंटग्यो। मिनखपणो तो रह्यो ई कोनी।
बातां करतां समदड़ी गांव आयग्यो। म्हैं बस सूं उतर्यो। थैली खाख में घाली अर घर कानी बहीर हुयग्यो।
म्हारा भाबोसा बारै इज बैठा मिलग्या। म्हैं मांय पूग्यो। सगळां सूं मिल्यो। गांव री सगळी हकीकत पतो लगाई।
म्हैं जिण दिनां घरां आवतो, उण दिनां खाली रोटी जीमण री वेळा इज घर में लाधतो, बाकी दिन भर यार-भायलां सूं मिलतो। बारै फिरतो रैवतो। सैंध-पिछाण वाळां सागै बातां करतो।
आज ई रोटी जीम’र बारै निकळू हो कै मांसा पूछ्यो-सिध जावै?
—अठैई बारै...।
—पाछो बेगो आ जाइजै। उणारी बोली में कीं भय भर्योड़ो लखायो। म्हनै अचंभो हुयो। पैली तो म्हैं आधी-आधी रात तांई बारै फिरतो तो ई म्हनै कदैई बेगो आवण रो नीं कह्यो। पण आज आ कांई बात!
—अबार आ जावूंला। म्हैं पड़ूतर दियो।
गांव रो सगळो वातावरण ई बदळ्योड़ो दिख्यो। होळी आडा सात दिन हा। पण नीं चंग रो धम्मीड़ो, नीं लूरां, नीं फाग। नीं मिनखां में उछाव, नीं हूंस। गांव में मसाण री गळांई चुप्पी छायोड़ी। म्हैं बारै निकळ’र बस स्टेंड कानी जावण लाग्यो। बस स्टेंड माथै ई कोई मिनख नीं।
लारला द्विनां कीं रोळा हुयां पछै दिन आथमण पछै कोई बस आवै-जावै कोनी। सगळी दिन-दिन रा इज चालै।
म्हैं पाछो आवण लाग्यो। सोच्यो, जगतार रै घरै मिलतो चालूं। आज दिन रा दिख्यो ई कोनी।
म्हैं जगतार रै घरां पूग्यो। दरवाजो बंद हो। मांय सूं होळै-होळै बोलण री आवाजां आवै हो।
म्हैं आडो खटखटायो। हेलो पाड़्यो-जगतार...जगतार!
—कुण है? घणी ताळ पछै आवाज आई।
—म्हैं हूं सेवाराम...।
—बो तो सूयग्यो। दिनूगै आइजो।
म्हनै अचंभो हुयो। जिण जगतार री मां म्हारो नांव सुणतां ई खुद दौड़ी आवती, म्हनै प्रेम सूं बिठावती, दूध री मनवार करती, बा अबार आडो ई नीं खोलै? उण म्हारै में अर जगतार में कदैई फरक नीं समझ्यो। दोनूं जणा नै बराबर राख्या। म्हांरै बीचै कदैई धरम आडो नीं आयो। भलांई बैसाखी हुवो या राखी। जगतार री बैन रै ब्याह में म्हारै घर रा सगळा जणा आपरो घर रो काम समझ’र निभाव कर्यो—कुण विमला अर कुण सुरिदंर। पण आज औ बदळाव...?
म्हैं घरां आयो तो मांसा म्हनै उडीकता लाध्या। उणारी आवाज सुणीजी—आयग्यो, ठीक रह्यो। फेर किणी सूं मिलणो हुवै तो दिनूगै जाइजै। म्हनै लाग्यो, मांसा रै मन में ई कोई अजाण भौ भर्योड़ो है।
म्हैं खाट माथै बैठग्यो।
—खाट चौक में लगाय लेवता नीं, मांय तो गरमी लागै।
—ना, कोई खास गरमी कोनी। अबार रात ढळण रै सागै-सागै ठंड हुवण लागैला...। म्हारा भाबोसा बोल्या।
आ कांई बात है? पैली तो फागण लागतां इज चौक में खाटां ढळ जावती। आधी-आधी रात तांई परसां चालती। मिदर रै चौक में तो मिनख मावता ई कोनी। छोरा, मोट्यार अर लुगायां री धमचक मच्योड़ी रैवती।
—म्हैं लाट बारै लगाय लूं...?
—नीं-नीं, मांय इज ठीक है। अर हां, आडो बंद कर दै...। म्हैं बोलूं उणसुं पैली म्हारा भाबोसा बोल्या।
आडो बंद कर दूं? आ कांई बात? औ कांई हुवतो जाय रह्यो है? म्हारै गांव माथै औ कैड़ो ग्रहण लाग रह्यो है?
म्हैं आडो बंद करण वास्तै उठ्यो कोनी तो म्हारा भाबोसा खुद उठ’र आडो बंद कर दियो। च्यारूंमेर फिर’र सगळा आगळ-कूंटा सावळ हाथ लगाय’र देख्या। प्रोळ री भखारी में ई झांक’र देख्यो। मांय कोई लुक्योड़ो तो नीं है। म्हनै कह्यो—रात रा आडो मत खोलजै...।
— क्यूं?
— बस, बाथरूम मांयनै इज है। कोई हेलो पाड़ै तो ई नीं बोलणो...! नी कैवतां थकांई म्हैं आगै री सगळी बात समझग्यो। लारलै दिनां जिण ढाळै री बातां गांव में हुई है उणसूं डर उपजणो ई हो। म्हनै रात भर नींद नीं आई। गांव रो बदळ्योड़ो उणियारो आंख्यां सांम्है रात भर घूमतो रह्यो।
दिनूगै उठ्यो जितरै खासा दिन चढग्यो हो। म्हैं स्नान-पाणी सूं निरवाळो हुय’र जगतार रै घर कानी बहीर हुयो। म्हैं उणनै ओळमो देवणो चावै हो-भला मिनख, सिंझ्या पड़तां इज सूयग्यो। आयो तो आडो ई नीं खोलणो... अैड़ी कांई बात...?
म्हैं उणरै घरां पूग्यो। रोजीना धड़ल्लै सूं घर में घुस जाया करतो पण आज ठाह नीं क्यू पग पाछा पड़ण लाग्या। दरवाजै सूं हेलो पाड़्यो-जगतार... जगतार!
—कुण है? कहतो-कहतो जगतार बारै आयो। उण म्हनै देख्यो।
—आवो! कह परो बारै कमरै में बिठायो।
म्हनै जगतार ई की बदळ्योड़ो-सीक लखायो। बो नीं तो हंस्यो, नीं बाथम-बाथ हुयो।
—कद आयो? थारै बठै कांई हालचाल है? बस इणी ढाळै री बातां हुवती रही। छेकड़ में आ बात पूछी—कद जावैला?
थोड़ी ताळ तांई म्हैं चुपचाप बैठ्यो रह्यो। म्हैं कह्यो—अबै चालूं। आइजै।
—हां, आवूंला।
म्हैं सोचण लाग्यो-जगतार रै कांई हुयग्यो? नीं चाय-पाणी री मनवार, नीं बातां में बो गरमास। अर बातां ई ऊपरली-ऊपरली!
म्हैं जगतार रै घर सूं बारै आयो।
च्यारूंमेर तावड़ो पसर्योड़ो हो। हवा बंद हुवण सूं अमूंझो हो।
अबै म्हारी इच्छा ई नीं हुई कै किणी दूजै भायलां रै घरां जावूं।