“गा! गा!! गा!!!”
मैं गा उठूं। के ठा’ कद सूं इयां गायां जावूं हूं। के ठा’ कद ताईं इयां गायां जावूंला! बा आवै, कैवै – “गा! गा!! गा!!!” अर में गावण लाग जावूं!
आज मैं बयांलीस बरसा रो होग्यो हूं। अै बयांळीस रा बयांळीसूं बरस म्हारा खुद रा जीयोड़ा है, जिको इणां री जीवन्तताई आज तकात म्हारै कनैं सरजीवण है। अै इतरा सारा बरस तो अेक- अेक करतां बीतग्या, पण इण बीत्योड़ा बरसा री विगत महारै कनैं जीवूंला जठा लग ठावी रैवैली। इणां मांयलो क्युंईक लेयनै अेक कहाणी जोड़ नाखूं, तो स्यात् म्हारै सूं निरवाळो भी कोई ठावोपणो इणनैं मिल जावै! हां, बीत्योड़ा बरस कहाणी सूं बेसी काईं बण सकै – इतिहास भी बण सकै, पण इतिहास भी तो अेक भांत री कहाणी ईज है। आ तो मैं अेक ईज कहाणी सुणावणो चावूं हूं, बियांस महारै सावळ चेतै है कै म्हारला इण बीत्योड़ा बयांळीस बरसां मांय अणगिणती री कहाण्यां, गीत’र छंद अर जाणै के-के रळ्योड़ा है। कितराक तो कथीजग्या, कितराक कथीजणो चावै अर कितराक इसा भी है जिका अब कदे भी नीं कथीज सकैला! जिका नीं कथीज सकै, उण रो पिसतावो तो कथीज ई सकै कै “मन री बात कथीजै कोनी!” पण क्युंई न क्युंई तो कथणो ई पड़ै, क्यूंकै “कथना रसना री लाचारी है।”
उण बखत, जद सूं उण रो ‘आवणों’ म्हारै चेतै आवै। में ड्योढ़ेक साल रो नै’नो बाळक हो – हां, म्हारै सावळ चेतै है, पूरमपूरो ड्योढ़ साल रो हो। के बेरो क्यूं महारै इतरै नैनपणै री विगत-वारता चेतै है। मिनख रै मांयनैं क्युंई इसो होतो होसी, जिको किणी विगत री धरोड़ नैं कदे गमण नीं देवै। क्युं भी होवै मनैं उण सारू टसकण-मसकण री दरकार कोनी में अेक प्यारै गीत री ज्यूं उण नै गा सकूं! दुसरा सकूं!
इतरो नैनो बाळक मानवी भासा नैं सावळ के बोल सकै। बस थोड़ासा’क सादां मांय समायोड़ी और-छोरबिहूण सिस्टी अर इण ओर-छोर नैं कथण री नैनी-सीक लळक महारा होठां सादां थोड़ा-घणा बचिया रमण लागग्या हा, “अैन्दे, आदी अैन्दे! चिइया-चिइया! चानः बोइयो!” बस, इसी ई क्युंई दूजी बातां मैं सादां रा इण बचियां सागै खेलतो-रमतो अर ठुमक-ठुमक चालतो घर रै इकलाण कूणै मांय जायनै बैठ जावतो अर इण थोड़ासा’क के सादां मांय समायोड़ी भासा मांय घणा-घणा गीत गाया करतो। पछै थोड़ी’क ताळ नैं उदास होय जातो। इणीज गाणै अर उदासी सूं जुड़्योड़ी है म्हारी कहाणी। बा आय नै ‘गा! गा!! गा!!!’ कैती, जणां मैं गा उठतो अर पछै बा चली जाती, जणां उदास हो जातो।
बा कुण है? क्यूं गावण सारू मनैं उकसावै अर पछै क्यूं चली जावै? मैं नीं जाणूं! पण में जद ड्योढ़ साल रो हो, जद सूं उण नैं ओळखूं हूं। इण सूं पैली रै ड्योढ़ बरस रै मांय भी वा आती-जावती रयी होसी! चेतै नीं आवै। पण लारला साढ़े चाळीस बरसां मांय बरोबर उण सूं भेंट होवती रयी है। बस, मैं तो उण रै बारै में इतरों’क जाणूं कै वा आवै, जणां मनैं कैवै – “गा! गा!! गा!!!”
ड्योढ़ साल री उमर मांय होयोड़ी उण भेंट री ओळखाण-विगत आजसुधी म्हारै सावळ चेतै है।
म्हारै घर रै आंगणै रै बीचूं-बीच अेक ऊंचो चिण्योड़ो तुळसी रो बिड़लो हो। उण रै नेड़ै अेक घणो घेर-घुमेर लाल कनेर रो बिरछ हो, जिण रा फूल मनैं राता-माता घणा फूटरा लाग्या करता। म्हारो भाई कठै सूं ई अेक मोटो अकडोडियो तोड़ ल्यातो, पछै उण अकडोडियै रै अेक कानी तो खूंस देतो उण कनेर री लाल-लाल डोडी अर दूजै कानी उणीज कनेर रा तीन लाम्बा-लाम्बा पत्ता टांग दिया करतो। इण भांत अेक सूवो बणायनै म्हारा हाथां पर मेल दिया करतो। पछै मा कैया करती – “बोल मिट्ठू, राम-राम।” मा रा सादां नै दुसरातो जणां संछेप ‘आम-आम’ रह जाती। उण कनेर रै गाछ रै अेक क्यारी सी बणायोड़ी ही! उण सूं थोड़ों’क आन्तरै पड़तो अेक लमटंग खेजड़ो हो। खेजड़ा तो उण दिनां म्हारै घर में दो दूजा भी हा, जिणां मांयलो अेक तो अजेस ऊभो है। इण गाछां पर किलकटार्यां फुदक्या करती; कागला, चिड़्यां, मोरिया, सूवा, कमेड़ियां, कबूतर, अर कदे-कदे बुलबुलां, खुड़ियाखाती’र तूंयल्यां भी आ जाती। पण इण सगळां सूं अबार काईं मतलब। उण कनेर रै गाछ री क्यारी री बात करणी है। हां, उण क्यारी रै सामूं-साम घर रो परीण्डो पड़तो।
उण दिन में परीण्डै में बड़तो मा नै बुझ्यो – “पांयी नेन्यूं..?”
मा बोली – “ना लाडी, परीण्डै में ना जाई। जा, फूल तोड़ल्या!”
मैं कनेर री क्यारी में आग्यो। फूल तो के टूटता! ऊंचा हा, जिको मैं फूल तोड़ण री चेस्टा करतो क्यारी मांयली गाछ री खोय में ल्हुकग्यो।
अर, जाणै कनेर रो अेक फूटरो फूल आपरी लाली मांय सफेदी री झाई मिलायां, म्हारै नेड़ै सी झुक आयो! म्हारी छोटी-छोटी आंख्यां अचम्भै सूं काईं देखै’क उण फूल मांय सूं प्रगटीज’र बा पैली तो धरत्यां उतरी अर पछै म्हारै नेड़ै आयी।
बा म्हारै ई जितरी बड़ी ही। म्हारी ज्यू ई पगां में घूघरां री पाजेब पैर राखी। उण रा हाथां में भी निजरिया बंध्योड़ा हा। गळै में म्हारै जिसो रो जिसो मूरतां हाळो झालरो झूल रयो। उण रो रूप घणो मोवणो हो। उण री आंख्यां घणी भाव-भरी ही। मैं उणनै अपलक जोवतो रैयग्यो अर बा म्हारै कानी देख-देख’र मुळकती रयी। उण री मुळक मांय अणहद संगीत भर्योड़ो हो। बिसी मुळक’र बिसो भाव मैं आज लग कठै ई नीं देख्यो, बस बा तो कोरी उण रीज तो मुळक है अर उण रो ईज भाव!
बा म्हारै डील सूं आप रो डील अड़ाय नै बैठगी। उण रै परस री सिळाई अकथ है। म्हारी आंख्यां नींदाळ होवण लागगी, पण पलकां झंपण रो नांव नीं लेवै। बा इसै सुर में बोली जिणरी मैं ओपती ओपमा भी नीं कढ़ावण सकूं! के ठा’ वीणा-पाणि री वीणा इसीज बाजती होवैली! बा, बस, कोरी इतरीज बोली ही “गा! गा!! गा!!!”
मैं मंत्रीज्योड़ो-सो गावण लागग्यो। पछै के ठा’ कितरीक ताळ गावतो रयो। के ठा’ बो अेक गीत हो, या सैंसूंसैंस गीतां रो जलम होग्यो हो। गायां गयो। पण ओ काईं...? मैं देखूं, तो बा गायब! मैं म्हारै अेवड़-छेवड़ च्यारूंमेर घणो ई जोयो, पण बा कठी नैं ईज नीं दीसी। बा कठै गयी कठै गयी? अब बो कनेर रो फूल भी म्हारै नेड़ो झुक्योड़ो को ही नीं। वो आपरीज सागी ठोड़ टंग्योड़ो झूम रयो। आ किसी’क अेक ल्हुकमीचणी होगी! मैं क्युंई सोचण लाग्यो, पण दूरां सूं आवती अेक तीतर री बोली सुणीज रयी अर जदे-जदे अेक घुरसळी भी बीच-बीच में बोल जाती। मैं उण रै जावण सूं रोयो कोनी, पण जाबक उदासो पड़ग्यो हो अर होठां ईज होठां में गा..गा..गा.. कैवतां-कैवतां, जाणै कद मनैं उण कनेर री क्यारी में नींद आगी।
मा’र बापूजी कैया करता कै उण दिन पछै मैं केई-केई ताळ ताईं गाया करतो अर पछै उदास’र रूंवासो पड़ नै सोया करतो। गावण री तो ज्यूं री ज्यूं म्हारै भी चेतै है, पण गायां पछै सोवण री मा’र बापूजी री कैयोड़ी याद है। बापूजी उण पैलै गीताळै दिन री अेक दूजी वारता भी बतावता कै उण दिन में नींद सूं जाग्यां पछै भी कई ताळ उणमणो रयो हो। बै लोग मनैं बिलमावण री घणी ई चेस्टा करी पण निरी देर ताईं मैं न तो रोयो अर न राजी हो पायो। बापूजी री गोदी सूं उतर नै ताऊजी हाळी साळ सामैं चल्यो गयो, जठै अेक कोयलो पड़्यो हो। बो कोयलो उठाय नै पैड़काळै तळै पूंछ’र छानो-मानो मांडण लागग्यो। मांडणो मांड्यां पछै बापूजी नै हेलो मार्यो हो – “देत्-देत्!” बापूजी पैली तो बठै आय नै बै मांडणा देख्या हा अर पछै मनै गोदी में उठाय नैं, मा नैं हेलो मारतां कैयो हो – “ओ तो
आपणै काळीदास प्रगट्यो है।”
आज उण बातां नैं साढ़ै चाळीस बरस बीतग्या। म्हारै में काळीदास रै महाकवि नैं आरोपणियां भी बीस-बाईस बरसां पैली, जठी नैं काळीदास गयो हो, बठीनै सिधाग्या। उणां रै इतरा जलदी जावण रो अेक कारण ओ भी रयो होसी के आपरै आंगणै अेक महाकवि नैं रमतां देख्यो हो, पण जद बीस-बाईस बरसां ताईं भी किणी महाकवि रा गुण प्रगटीजता नीं दीख्या, जणां निरास होयनै चल्या गया होसी । महाकवि रा मायेत बणन रै सुपनै नैं भी सागै ईज लेग्या होसी।
हां, म्हारै में काळीदास, कै किणी महाकवि रा लक्खण तो इण साढ़े चाळीस बरसां में को प्रगट्या नीं, पण बा उण दिन पछै बरोबर बियां ई आवै-जावै। आवै, जद में उणरै कैवणै सूं गावण लाग जावूं अर पछै, जद बा छानी-मानी चली जावै, जणां मैं बोलबालो उदास हो जावूं। टाबरपणै में तो उण रै गयां पछै में रूंआसो पड़ नै सो जाया करतो, पण होळै-होळै उण रै गयां पछै मैं रूंआसो ई पड़न लागग्यो। जागतो तो रैवण लागग्यो, पण इण सूं उदासी री घड़ियां भी बधगी। कदे-कदे तो दिनां-दिनां ताईं बा उदासी छायोड़ी रैयी है अर कदे-कदे तो बा उणी’ज उदासी बिचाळै पाछी भी आगी है। दिनां लार उण रै सागै आपस री बतळावण भी सरू होगी ही। बातां तो कदे-कदे मैं करणी चावूं, पण उण रै तो अेक ईज रटना – “गा! गा!! गा!!!” बयांळीस बरस उण रा गीत गातां बीतग्या, पण उणरी गीतां री तिसना तो तिसाई री तिसाई ई रयी।
उण सूं मिलाप रा म्हारै घणा ई प्रसंग है। सगळा बतावण लागूं तो कोई अेक जुग जरूर लागै। उण सूं मिलाप री काईं-काईं बातां बतावूं। मैं आज लग उणा रै कैयै-कैयै घणा ई गीत गाया है अर गातां-गातां जाणै कद गवैयै सूं गीतकार बणग्यो! बाळकिया दिनां में जिको क्युंई मैं गायो हो, बै गीत हा कै कोरी रागळियां ई रागळियां, अर उण रो क्युंई अरथ भी होतो कै नीं, मैं नीं जाणूं! जाणै म्हारै गावण रो क्युंई अरथ कोनी! पण मैं उण सूं मिलाप रा प्रसंगां बाबत बता रयो हो। केई बार तो बा दिनां-दिनां ताईं को आवती नीं। मैं उण नैं उडीकतो रैतो, उडीकतो रैतो। उण नैं उडीकती बेळा मनैं क्युं भी आच्छो नीं लागतो। म्हारी आंख्यां बारूंबार सून्याड़ में क्युंई जोवती रैती अर मैं म्हारै ओळै-दोळै इकलाण नैं सिरजतो रैतो। इकलाण इण वास्तै कै जां दिनां बा दूजां रै सामैं जद में होतो, जणां नी आया करती।
बा केई दिनां नीं आवै, जणां अब भी मैं उण नैं घणो निमळो पड़्योड़ो उडीकतो रैवूं। उण री उडीकना रै बीच में अब भी मनैं क्युंई दूजी बात आछी नीं लागै। अब भी मैं उण रै सारू म्हारै ओळै-दोळै इकलाण सिरजतो रैवूं। पण उण नैं इकलाण री दरकार को रैयी नीं। बा भीड़-भड़ाकै बीच भी म्हारै कनैं आ ढूकै। पण उण नै कोरो में ई’ज देख सकूं, दूजो कोई नीं देख सकै। हां, उण रै आयां पछै म्हारै मूंडै पर जिको क्युंई आवै-जावै, उण नैं दूजा जरूर लख लेवै।
टाबरपणै री अेकर री बात!
उण दिनां बारा बरसां रो हो। पढ़णो-लिखणो सरू होग्यो हो अर लोगां री निजर में मैं सायेना टाबरां बिचाळै घणो स्याणो-समझणो अर सूधो गिणीज्या करतो। मा रै ‘रामायण’ सुणण री घणी लळक रैती अर मैं ‘मानस’ रा दूहा, चौपाया’र छंद मुधरा बाळ-कठां सूं भांत-भांत सुणातो। बास-गळी री दूजी लुगायां भी ठाली बेळा सुणण नै आ जाया करती। म्हारा भीभळ कंठ-सुरां में रळ्योड़ी बा रामकथा सुण’र घणकरी’क बार मा अर लुगायां रै आंसूड़ा बैवण लाग जाता। पछै बै सगळी जणी म्हारा कोड-चाव करती का “ओ तो कोई तपधारी है, के ठा’ कियां तप टूट’र आग्यो है।” इसो ई अेक असर हो म्हारै च्यारूंमेर म्हारो! क्यूं कै लुगायां नै मैं ‘रामकथा’ गाय नैं सुणा दिया करतो अर इणी’ज भांत सायेना टाबरां नैं मैं म्हारी बाळ-कल्पना-सगती रै जरियै के ठा’ कितरा’क परीलोक’र जाणै के-के दिखा देतो। पोथ्यां में सूं बांच्योड़ी अर कत्थकड़ां सूं सुण्योड़ी बातां म्हारै ज्यूं री ज्यूं याद रैती। पोथ्यां’स नित नुंवी बांचतो ई’ज रैतो। बाकी मन सूं जोड़’र घड़ लिया करतो अर टाबरां नै सुणा देवतो। इण भांत सायेना टाबरां बिचाळै म्हारो न्यारो रुतबो रैतो। जां दिनां सगळां सूं बेसी बखत म्हारो बापूजी कनै बीततो। अठै ताईं कै बां रै सागै सोतो, बां रैई’ज सागै जीमतो अर बै जठै जाता में बां रै सागै रैतो। दिनूगै-सिंझ्या तो बां रै सागै संगीत-साधना चालती, जिकी में तीन साल रो हो, जद सूं ई सरू होगी ही। सूर, मीरां, कबीर आद रा पद गातो, राग-रागन्यां रा आलाप उठातो अर ध्रुपद’र ठुमर्यां नैं साधतो। गावणै में म्हारै इसी तन्मैताई आती कै बापूजी खुद विभोर हो जाता। स्यात् बेटै पर मोह होवण सूं बेसी आछो लाग्या करतो होसी। पण कदे-कदे बां रा कोई भायेला बैठ्या होता, या कोई मैफल जुड़ी होती जणां लोग कैता कै “ओ तो कोई तुम्बुरू रिसी ई’ज आग्यो है। किसा’क तो सुरीला कंठ है अर किसों’क लैदारी सूं हरमनियो बजावै।” इण भांत के ठा’ के-के उपमान टाबरपणै में पाया करतो। मैं बापूजी रै घणो हाडां-हिल्योड़ो हो। तीन बरसां रो हो, जणां बां रै सागै कलकत्तै जातरा कर आयो हो। बापूजी सूं के-के पायो, नीं बतायीज सकै! हां, लोग आज कैवै कै म्हारा सगळा गुणां में आनुवांशिकताई रळ्योड़ी है।
आज मैं सोचूं तो घणो दुख होवै कै मैं उणां मांयलै अेक भी उपमान नैं सारथक नीं कर पायो! बापूजी भी मनैं जिको क्युंई देणो चावता हा, उण नैं खरमखरा धारण नीं कर पायो। न तो मैं काळीदास बण्यो, न तपधारी, अर न तुम्बुरू बण्यो, न दूजो क्युंई! अेक अजब संजोग ई कैणो चाईजै कै बापूजी मनैं 'नटराज’ रै रूप में देखणो चावता अर म्हारा नैना-नैना पगल्यां में नैनी-नैनी घूंघराळी पाजेब रै सागै रुणझुण घूघरा बंधग्या हा अर तबलै री ताल पर “तत्-तत् थून् तिग्धा-दिग्-दिग् थेई” नाचण लागग्या हा। आंख्या’र हाथां री मुद्रावां सागै कमर में लुळक आवण लागगी ही। पण बा तो मनैं क्युंई दूजो ई’ज बणाती जावै ही।
उण दिनां, जद मैं बारा बरसां रो हो, जणां अेक दिन सायेना छोरी-छोरां सागै बड़-पीपळां कानी खेलतो हो। मैं टाबरां-टीगरां सागै रमतो-खेलतो तो जरूर, पण टाबरां भेळो घणी जेज नीं टिक सकतो। के ठा’ क्यूं म्हारो मन उड्यो-उड्यो सो हो जातो। खेलतां-खेलतां मैं थोड़ी’क ताळ पछै ई इकलाण ढूंढ लेतो। उण दिन भी मैं ‘कुरकाईं’ खेलतां-खेलतां के ठा’ कद मांय कर आथूण-कानला धोरां कानी भाजग्यो हो। अै गोरा-गोरा धोरा अर आ उजळी-निरमळ रेत मनैं सदीव ई चोखी लागी। हवा रै रुख सूं बण्योड़ी अै ढळांतां, अै चढ़ांतां अर दूरां-दूरां ताईं इकलाण! मैं घणी ई बार अठी नैं आया-जाया करतो अर घणी ई जेज ताईं मनचींत्या लोटपळोटा खाया करतो, मन रा गीत गाया करतो अर इण धोरां में म्हारो क्युंई गम्योड़ो होवै, ज्यूं ढूंढ्या करतो। मैं आज ताईं भी नीं जाण पायो हूं कै मैं उण धोरां में काईं ढूंढ्या करतो! जद मैं म्हारी सागण ठोड़ पर पूगग्यो, जणां अेकर च्यारूंमेर निजर पसारी। म्हारै नेडै ई’ज कोई अेक तितली, जठै-कठै ऊभा आकड़ां, फोगड़ा'र खींपड़ां पर फुदक री ही। मैं उण तितली रै लारै भाजण लागग्यो हो। के ठा’ कितरी’क ताळ वा तितली मनैं आपरी सोनल पांख्यां री ‘तत्-थुन्’ पर नचावती रैयी। गोरा-गोरा धोरियां री सोनल लहरां पर नेड़ै-निड़ास म्हारा खोज ई खोज मंडीजग्या हा। उण अणगिणत म्हारा ई’ज खोजा रै बिचाळै ऊभो होयोड़ो मैं उण तितली नै अपळक देख्यां जावै हो। बा तितली हवा में अेकर आपरी पांख्यां खोल’र पाछी बैठगी अर में देखूं कै बठी नैं सूं अेक बाळक परी म्हारै कानी हळवां-हळवां चालती आ री है।
बा आगी।
बो ई’ज सागी रूप, बो ई’ज सागी रंग। सागण बा’रीज बा ही। उण री हेताळ आंख्यां में गुमान रो तीखो सो काजळियो। उण रा होठां पर भोळी-मुधरी मुळकण। उणरा लैरावता काळा-कंवळा केस, उण री लै सूं बन्ध्योड़ी मैमंत चाल। म्हारी निजर रो सगळो सोवणापो उण रै रूं-रूं में रळ्योड़ो।
आपसरी में म्हारी निजर्यां टकरायी अर बा बोल उठी – “गा! गा!! गा!!!” म्हारै च्यारूंमेर पड़गूंजां गूंजगी। बायरै री हर थिरकण, धोरां रो कण-कण अर म्हारो खुद रो रूं-रूं पड़गूंजां में इणभांत रळ्यो कै जाणै सिस्टी रै अणु-अणु मांय सूं ‘गा-गा-गा’ गूंज उठ्यो है। मांय-बारै पड़गूंजां सैंजोर होवण लागगी ही। मैं सुण रैयो हो, जाणै आज तकात रा सिरज्योड़ा सगळा बाजा बाज उठ्या होवै – गा...गा...गा…!
म्हारै मांयनै गीत घुमट उठ्या। गळै में सुर घिर आया। मैं गीत को ऊगेर्यो नीं। मैं जाणै कैवणो चावतो – “तूं क्यूं म्हारो लारो पकड़ राख्यो है ? कुण है तूं? म्हारो गावणो सरू करवायनै तूं खुद कठी नै भाज जावे? क्यूं तूं मनै इयां गीतां रो बावळियो बणा राख्यो है? बता...! बता...!! आज बूझनै रैवूंला’!!!”
बा मुळकी कै जाणै उण धोरां पर मंड्योड़ा महारै खोज-खोज पर भांत-भात रा रांग-रंगीला पै’प खिल उठ्या होवै। बा अेक इसी निजर सूं म्हारी आंख्यां में जोयो कै जाणै म्हारै च्यारूंमेर हजारूं इन्द्रधनस ई इन्द्रधनस मंडीजग्या होवै अर उणरा रंगां सूं बठै रो सो’ कीं रंगीजग्यो होवै। बा म्हारै नेड़ै आय नै अूभी होगी कै जाणै उण री सांसां मांय सूं म्हारै ओळै-दोळै मैमंत मैकारां सरसीजगी होवै। उणरी लाम्बी-तीखी आंगळ्यां पैली तो हवा मांय कईक मुद्रावां बणायी अर पछै जाणै म्हारी आंगळ्यां मांय उलझ'र पोरवा गिणण लागगी होवै!
बा बोली – “मैं जलम-जलमान्तर सूं थारै सागै हूं। मैं तो थारी संगण-साथण हूं। तूं गीत गावै, जणां मैं कठै ई नीं जावूं, मैं तो थारा गीतां मांय रळ जावूं हूं। थारा अै गीत ई म्हारा प्राण-पणमेसर है! गीतां रा बावळिया, तूं तो कोरो गावण सारू जाम्योड़ो है अर तनैं आखी जूण गायां ई’ज सरसी! अबै तूं गा...! गा...!! गा रै!”
मैं उण सूनै मरुथळ मांय गीत उगेर दिया। अेक-अेक करतां गीत गायीज रया। इयां के ठा’ कितरी’क ताळ गावतो रयो अर पछै के ठा’ कियां’र कद रोवण लागग्यो! म्हारा गीत, म्हारी सुबक्यां, म्हारा आंसू, म्हारी इकलाण अर मैं! सूरज निराण आथम रया अर अेक अपूरब सांती बठै छायोड़ी ही। मैं करूं कै स्यात् इणीज सांती नैं इण धोरां मांय में ढूंढ़्या करतो! सिंझ्या रो अन्धारो जद घुळण लागग्यो, म्हारै घरहाळा अर केई सायेना बाळक मनै ढूंढ़ता-ढूंढ़ता बठै आ पूग्या हा। बै लोग मनैं सुबक्यां-चढ़्योड़ै अर रोवतै नैं देख’र जाण्या कै अठै मैं अेकलो डरपग्यो हूं, जिको म्हारा बापूजी म्हारै काठी बांथ घाल लीनी अर जाणै काईं-काईं कैवता बिलमावण लागग्या हा। घरां पूग्यां पछै मा’र बापूजी मनैं लडावता, मनावता अर धमकावता-थकां कैयो हो कै “आगी नैं सारू कदे अेकलो धोरां कानी ना जायी!” बै पछै घणकरीक तो म्हारी निगैदारी भी राखण लागग्या हा, पण इकलाण मांय पूग’र गावण री अर पछै उदासो होवण कै रोवण री म्हारै बाण पड़गी ही।
उण दिनां लोग मनैं ‘कवि’ कैवण लागग्या हा। कविता तो स्यात् जां दिनां काईं जाणतो, पण म्हारै कनै म्हारी अेक कापी ही, जिण मांय म्हारा आळा-भोळा साद गीतां रा बाळकियां नैं रमाया करता। बियां तो ड्योढ़ साल रै नैनपण सूं लगाय नैं आज ताईं मैं म्हारा ई गीत गावतो चालूं, पण कलम’र कापी रै धक्कै स्यात् अै गीत दस-बारा बरसां बीच चढ्या हा। बा बारूंबार आवती रैवती अर मनै गीतां सारू दूणो-दूणो उकसाया करती। म्हारै मांय म्हारला बापूजी जिको अेक नटराज सिरज रया हा, उण नैं बा दिनूं-दिन गीतां रो बावळियो बणावती जा रयी ही।
मैं सोचूं हूं कै बो किसो’क अेक अजब संजोग हो कै इतरा साधन अर सुविधावां मनैं जिको क्युंई बणावण सारू जुटायीजी ही, मैं उण रै उणियार नीं ढळ नै, बिना क्युंई आधार रै दूजो ई क्युंई बणीज रयो!
अेक छोटै सै कसबै मांय तीजै दरजै री भणाई करतो अेक बाळक, जिको मैं हो, आपरै ओळै-दोळै कवि-रूप मांय ओळखीजतो। कवि तो उण दिनां मनै लोग आपै ई कैवण लागग्या हा, पण कवि रै सागै ‘सम्पादक’ में खुद आपै ई बणग्यो हो। म्हारा सायेनां नैं मैं कैया करतो कै “मनै सम्पादकजी कैवो..!” छोरा बिचारा काईं जाणता के सम्पादकजी काईं होवै छोरा तो छोरा, उण दिनां तो बडा-बडा अर पढ़्या-भण्या लोग ई को जाणता नीं कै ‘सम्पादकजी’ के होवै है। पण मैं हाथ सूं लिख्योड़ी अेक पत्रिका रो सम्पादक हो। पत्रिका मांय घणकरी’क रचनावां म्हारी ई’ज रैती अर सम्पादक री जगां भी म्हारो ई’ज नांव रैतो। बियां विविधताई सारू मैं म्हारा अनेकूं नांव धर मेल्या हा। पत्रिका नैं भांत-भंतीला रंगा में चित्रामण्यां कोर नै घणी फूटरी-फररी बणाया करतो। स्कूल मांय कै घर मांय कठै ई कोई मारग-दरसावू नीं, पण के ठा’ कियां’र कठै सूं, अै सैंग तेवढ़ आवड़ग्या हा अर कियां सम्पादकी उपज आयी ही। हां, दोपारां बापूजी साळ रै बारणै कनै बैठ्या चितराम कोर्या करता अर उण मांय रंग भर्या करता, जद उणां री देख्यादेख पैली तो घर अर बास-गळी री भींतां काळी कर नाखी ही अर पछै कागदा नैं ई रंगण लागग्यो हो। पैली-पैली तो म्हाराज गंगासिंघ थे राजासाही साफो, मुंछ्यां री मरोड़ अर उणां रो उणियारो कोर नाखणो, जाणै म्हारै बांवोड़ै हाथ रो खेल होतो अर पछै म्हातमा गांधी, सुभासचन्द्र बोस अर हर हिटलर रा चित्राम चालतो ई’ज किणी भींतं पर कोर भाजतो। सैंग जणा म्हारै पर अचम्भो कर्या करता कै इण ‘छिदामै’ नैं अै सगळी कळा-कारीगर्यां अर अै भांत-भांत रा हुनर कुण सिखा-सिखा नै जावै है! म्हारै डील-डोळ नैं तोल-जोख’र बास-गळी रा लोग भगवान स्रीकिसन रा बाळमीत सुदामाजी सूं म्हारी ओपमा जोड़ राखी ही। पण मनैं ओ सो’कीं सिखावणियै नै दूजो कोई को जाणतो नीं, उणनै तो अेकलो में ई जाणतो। में आपूंआप ई’ज अै सैंग किरतब को करण लागग्यो नीं। बा इकलाण मांय म्हारै कनै आती अर पछै क्युंई करण-धरण वास्तै बारूंबार उकसाती रैती अर जणां में उणरै बतायै मारग पर चालतो रैतो।
बा कैयो हो नीं कै “मैं जलम-जलमान्तरां सूं थारै सागै हूं,” जिकी मनैं सदीव साची लखावै। कदे-कदे तो करूं कै मैं इयां भरमीज्योड़ो हूं। जलम-जलमान्तर अेक भरम है, जिको म्हारै टाबरपणै सूं चैंठ्योड़ो है। पण जद भांत-भांत रा संजोगां अर बीत्योड़ी विगतां पर विचार करण लागूं, जणां भरोसो लूंठो पड़ण लागै कै बा है, जरूर जलम-जलमान्तरां सूं म्हारै सागै है। कदे-कदे इसी भी बीती है कै मैं म्हारा जलम-जलमान्तरां नैं याद करण बैठग्यो हूं। म्हारा लारला जलमां री आखी विगत-वारतावां तो म्हारै चेतै नीं आवै, पण उण री क्युंईक झळक्यां दामण री ज्यूं पळकारा नाख्ती सी लखावै। कई बर तो मैं परतल इयां करतो रैय जावूं कै इयां तो मैं पैली बारूंवार बोल चुक्यो हूं, आ तो म्हारी पैली री सुण्योड़ी है अर ओ तो म्हारो चिरपरिचित है। मैं अनेकूं बार फेर-फेर कथण रा भंवचकेरियां मांय खुद नैं भूईंजतो सोधूं, जिको उण री वा बात साव साची लागै कै मैं कठै ई नीं जावूं, थारा गीतां मांय रैवूं अर उणीज गीतड़लां मांय रळ जावूं।
उण रो आवणो-जावणो बाइरियै सूं झीणो है। मैं उण रा अनेकूं अनोपम अर रूपाळा रूप आज लग बारूंबार देख चुक्यो हूं। उण सूं अनेकूं बार मन री वारतावां’र बतळावण कर चुक्यों हूं, पण बा आवै, जणां खुद आपरै मन सूं आप ई आवै। मैं बुलावणो चावूं, जणां लाख मनवारां कर्यां ई को आवै नी। घणी ई बार मैं उण नैं हेला मार-मार नैं धापग्यो हूं, पण कदे पानको ई को खुड़क्यो नीं। उण री तो सगळी ई बातां अणंत’र अपार है।
अेकर अेक अजब बारता बणगी।
उण दिनां में सोळा बरसां रो हो। म्हारै अठै अेक नामी सरकस आयोड़ी ही। मैं सरकस देखण नै गयो हो। खेल आप रै रीत-नेम मुजव सरू होयो, भांत-भांत रा इसा अचरज-भर्या करतब म्हारी आंख्यां रै सामै दिखाळीज्या, जिसा पैली कदे म्हारा नीं देख्योड़ा हा। अजब-अजब भांत रा अनोखा तमासा देख-देख’र में घणो राजी हो रयो। दोनूं जोकरां रा ओळ-पिचोळा करतब देख’र घणो मजो आ रयो। हाथी, सिंघ, बान्दरा, घोड़ा अर जाणै के-के जिनावरां रा करतब मैं आंख्यां-फाड़्यां देख रयो। म्हारी अचम्भै मांय रळ्योड़ी निजर उण बखत ठग्योड़ी सी रैगी, जद घेर-घुमेर फ्राक पैर्योड़ी आठ छोर्यां रो झूलरो सामैं आयनै आपरा करतब, कदे सामल रळ’र अर कदे न्यारा-न्यारा दिखाळणा सरू कर्या।
मैं काईं देखूं कै उण आठूं छोर्यां मांयली अेक जणी तो सागण बा’ री’ज बा है। सागी रो सागी उणियारो। सागी रो सागी रंग-रूप। सागी री सागी भाव-भरी आंख्यां। सागी रो सागी मुधरो मुळकणो। बा तो कैती ही नीं कै थारै कनै हूं – थारा गीतांमांय अेकूंकार! पछै आ इण सरकस मांय कठै सूं आयी? पछै म्हारो मन सरकस रा उण करतबां मांय नी रम सक्यो। बारूंबार उण रो ईज अेकली रो ध्यान आवै! मन नैं घणो ई समझावण री चेस्टा करूं कै आ बात कोनी, ओ तो अेक संजोग भर है। बा होती तो भाजी म्हारै कनै नीं आ जाती... पण इयां भी तो हो सकै कै बा इतरा जणां री भीड़ मांय मनै देख्यो ईज नीं होवै। नीं... नीं, ओ म्हारो भरम है, बा तो म्हारै मांय है, आ सरकस मांय तो कोई दूजी है।
मनै होस नीं कै कद खेल खतम हुयो अर कद मैं घरां आयो। स्यात् म्हारा साथी तमासो पूरो होयां पछै मनैं आपरै सागै ले आया होसी। उण दिन रो बो सरकस रो अजब-अनोखो खेल तो पूरो होग्यो हो, पण म्हारली खिलती जूण में अेक खेल सरू होग्यो हो, जिको कई दिनां तक चालतो रयो।
दूजै दिन दिनुगै मैं ताल में तणीज्योड़ा सरकस रा उण तम्बुवां रै ओळै-दोळै घेरा घालतो घूम रयो। न तो रोटी री सूध अर ना पाणी री तिस। मन करै कै कियां उण नै पाछी देखूं अर देख्यां ई जावूं! जितरा दिन सरकस रयो, मैं नित उण रा खेल देखतो रयो अर आखै दिन उण तम्बुवां रै घेरा घाल्योड़ा राख्या। कदे-कदास उणरै ऊपर म्हारी निजर पड़ जावती जणां म्हारो काळजो फरक सो उठतो। म्हारै दोस्त-भायेला तो घणा ई हा, पण मैं म्हारै मन री बात कदे किणी नैं को बतायी नीं। बस, इण खातर उणमणो’र उदास होयोड़ो मैं अेकलो तम्बुवां मांय ताक-झांक करण री चेस्टा करतो बठै घेरा घाल्यां राखतो। पछै अेक दिन सरकस हाळा आप रा तम्बू उखाड़ लिया अर मैं हसरत-भरी निजरां सूं उण रो सामान देखतो रयो। छेवट बा सरकस चली गई। बा सरकस के गई, जाणै म्हारै मांयनै सूं क्युंई निचोड़ नै लेगी। मैं महीनां ताईं उदास, उणमणो अर गुमसुम बण्योड़ो आवाडूळ रैग्यो।
मैं म्हारै च्यारूंमेर घणी सूं घणी इकलाण सिरजण री चेस्टा करतो अर आभै री लीली सून्याड़ में उण नैं सोधतो थको हेला मार्या करतो, पण उण नैं तो आवणो होवतो जणां बा आप ई आ जावती, नींतर हेला मार्यां काईं को बणतो नीं। मैं जाणै सो’ कीं जाणतां-बूझतां भी काईं को समझतो नीं।
इण रै पछै, इसा अजब संजोग अनेकूं बार बणग्या है। अेकर मैं उणनैं कलकत्तै री कालेज स्ट्रीट पर आपरी भायेल्यां सागै जावती देखी ही। मैं मार्केट रै सामै अेक ‘सो-रूम’ सामै ऊभो जिनसां देख रयो। इयां मैं घणीई बार बिना काम कठैई ऊभो होयनै मूंडो फाड़ण लाग जावूं हूं, क्यूंकै मन उखड़ीजण लागै, जणां म्हारा पग भी उखड़ जावै अर मैं किणी भीड़ मांय कै इकलाण मांय अकारण ईज चल्यो जावूं हूं। उण दिन भी कालेज स्ट्रीट कानी अकारण चल्यो गयो हो अर निरी ताळ ताईं घूमता थक’र उण ‘सो-रूम’ सामै ऊभो होयग्यो हो। चाणचुकै बा आपरी भायेल्यां-समेत म्हारै सामै सूं नीसरी। म्हारी अजब हालत बणगी ही। मैं उण रै लारै चाल पड़्यो। बा म्हारै कानी स्यात् अेकर भी नीं देख्यो होसी, पण मैं जाणै किणी म्रिगतिसना रै तूठीजण री आस लियां उण रै लारै-लारै चालतो रयो। कितरी सड़कां अर गळ्यां मांय भटक्यो अर जद बै अेक घर मांय बड़गी, जणा में बोझल पगां सूं खुद रो टूट्योड़ो सो असबाब ढोवतो पाछो आयो हो। इणीज भांत अेकर उण नै बम्बई मांय जुहू-बीच पर देखी ही। मैं उणरै लारै भी केई ताळ भटकीज सकतो, पण म्हारै सागै म्हारा मींत-भायेला हा, बै मनै उण रै लार नीं जावण दियो हो। दूरां-दूरां सूं तो केई बार झबका-सा पड़ता दीख्या है। जद-जद भी में उण नै इण भांत देखी है, घोर उदासी रा समदां मांय डूबग्यो हूं अर वा उदासी म्हारी तोड़ी कदे नीं टूटी है। फेर मनै इतरो चेतो तो सदीव रैवतो आयो है कै “आ बा कोनी, उण रै उणियारै री कोई दूजीं है। बा तो जलम-जलमान्तरां सूं म्हारै सागै है। म्हारै माय है। पण इतरो होवतां भी मैं उण नैं जठै-जठै भी देखी है, बठै-बठै अनेकूं बार चकोरिया काटतो रयो हूं।”
अेकर तो इण माया-लीला मांय इसी विचित्र हालत मांय फंसग्यो हो कै काईं बतावूं।
दस बरस पैली री बात है। जां दिनां कलकत्तै गयोड़ो हो। अेक दिन मैं न्हावा धोई करनै म्हारी गिद्दी मांय, मैं जठै सोभाराम बैसाख स्ट्रीट मांय ठैर्या करूं हूं, बैठ्यो हो। दोय माळा फेरनै बारै नीसरण रो मत्तो कर रयो हो कै जितरै तो अेक मामूली-सो जाणकार आ पूग्यो। बो कैवण नै आयो हो कै सिंझ्या पड़े मनै अेक जगां बुलायो है। कोई म्हारी कवितावां सुणणी चावै है। मैं थोड़ा-घणा ओदा-खोदा बूझ्यां पछै हामळ भरली ही।
दिन तो काम-काज मांय नीठग्यो अर सिंझ्या आयगी। ठीक बेळा सिर म्हारो बो जाणकार म्हारै कनैं अेक फूटरी मोटरकार लेयनै आ पूग्यो अर बठै सूं म्हे लोग उण कार मांय बैठनै चाल पड़्या। बो जाणकार म्हारै सूं बतळावण करतो भांत-भांत री मनवारां भी कर रयो। म्हे लोग बडै बजार नैं पार करनै धरमतल्लै पूग्या, जठै बो कार नैं थाम’र अेक सिगरेट री पाकेट ल्यायो अर पछै पार्क स्ट्रीट मांय फेरूं कार नै थाम दीनी अर बोल्यो “चालो चाय-पाणी करल्यां।” मैं मना कर्यो, पण बो आप कानली खातर्यां’र मनवारां करण लाग रयो। म्हे लोग अेक भड़कीलै रेस्टोरेन्ट मांय चाय-पाणी करी अर पछै सिगरेटां रो धुवों उपाड़ता अेक जगां पान गिलाफां मांय ठूंस्या, अर मोटरकार आपैर मारग चाल पड़ी।
‘लेक’ रै अेवड़-छेवड़लै बास मांय अेक फूटरै-फररै अर आधुनिक बंगलै मांय मोटरकार जाय नै थमगी। बो जाणकार, जिणनै अेक दोस्त ईज कैवणो चायीजै, मनैं दो तल्लै रै अेक सज्यै-धज्यै कमरै मांय लेयग्यो। बठै म्हारी उड़ीकना करीज रयी। अजे म्हे उण कमरै मांय पूग्या ई’ज हा कै बुलावो आयो, “आं नै मांयलै कमरै मांय बुलाया है।”
म्हे लोग मांयलै कमरै मांय जाय पूग्या, जठै अेक अधेड़ उमर री लुगाई म्हारो आव-आदर कर्यो। आखै वातावरण मांय मनै अेक चावना री मुधरी-मुधरी सी मैकार लखायी।
रात रा कोई आठ-साढ़े आठ बजगया हा।
म्हे तीनूं-जणा अेक गिदड़ै पर बैठग्या हा। ओ कमरो उण पैलड़ै कमरै सूं भी बेसी कीमती सिणगारां सूं सज्योड़ो हो। मैं म्हारै खुद मांय सिमटीज्योड़ो हो। मैं कदे तो कमरै रै सामान कानी देख रयो अर कदे-कदास उण अधेड़ लुगाई कानी भी देख लेवतो।
बा अधेड़ लुगाई महारै सूं बतळावण सरू करती बोली, “कुसुम नै थारा गीतां रो घणो कोड-चाव है। बा थारी घणी चरचा कर्या करै।”
मैं काईं को समझ्यो नीं कै कुण तो कुसुम है अर कद बा म्हारा गीत सुण्या। मन मांय कर्यो कै कदे कोई सम्मेलन कै गोस्ठी मांय सुण्योड़ी होसी कै कदे किणी छापै-छूपै मांय बांच्चोड़ी होसी। स्यात् आ कुसुम इण लुगाई री बेटी होवैली। मैं इण बात रो क्युंई उथळो को दियो नीं, बस अन्दाजा बांधतो रयो।
उण दिनां ताईं म्हारी ख्यात अेक कवि रै रूप मांय फैल चुकी ही। भांत-भांत री म्हारी रचनावां छापां मांय छप चुकी ही, अर केई छापां मांय म्हारा फोटू ई छप्योड़ा हा। कवि सम्मेलनां अर गोस्ठयां मांय भी म्हारा कितरा ई’ज रंग जम चुक्या हा। इणीज भांत उण बंगलै मांय उण दिन मैं नूंतीज्योड़ो हो।
जद मैं क्युंई नी बोल्यो, जणां वा अधेड़ लुगाई केई भांत री बातां करती बतळावण लागी अर पछै हार रै दरजै कयो – “कविजी, थे तो सूधा भोत हो! आज रो जमानो सूधापणै रो कोनी।”
म्हारी इकलाण अंतरमुखी बिरती इसी ईज है कै मैं अणजाण-ओपरा लोगां मांय अर नुंवो चल्यो जावूं तो काठ होय जावूं! लुगायां रै सामैं तो क्युंई बेसी ई सिमट जावूं ! दोस्त-भायेला म्हारी इण विरती पर आपरै मनोविज्ञान सूं भांत-भांत री टीपणी कर्या करै।
मैं क्युंई बोलणो चावतो कै जितरैक तो बा अधेड़ लुगाई फेरूं बोलगी – “ल्यो, आ कुसुम भी आयगी!” अर बा कुसुम हाथ जोड़ नै निमसकार करती म्हारै कनै आयनै बैठगी।
“हे राम, ओ काई..!”
मैं उण नै देखतां पाण उण ठंडै कमरै मांय भी परसेवां सूं भीजग्यो। अेक बीजळी-सी म्हारी आंख्यां मांय पळकारो नाखगी। मनै लखायो कै जाणै मैं चेतो बिसर जावूंलो। मैं खुद सूं लड़तो संयत रैवण री चेस्टा करी, पण म्हारी सांस जाणै उतावळी चालण लागगी ही अर मैं मांय ई मांय जाबक लड़खड़ीजग्यो हो।
म्हारो बो दोस्त बोल्यो – “ल्यो, थारो परिचै करावूं!”
मैं तो उण कुसुम नैं देखतो रो देखतो रैयग्यो, पण बो थोड़ा सा सिस्टाचार रा सब्दां मांय आपस री ओळखाण कराय दीनी।
पछै बो आ कैवतो कै “मनै बाबू सूं क्युंई जरूरी बतळावण करणी है, आप बैठो!” कमरै रै बारै चल्यो गयो।
अब उण कमरै मांय रैयग्या म्हे तीनूं जणा – मैं, कुसुम अर बा अधेड़ लुगाई। मैं उण दो अणजाण लुगायां रै बिचाळै अेकलो हो, पण दो अणजाण लुगायां क्यूं..? बा कुसुम तो म्हारा जलम-जलमांन्तरां री संगण-साथण ही – सागण जाणै बा’ री’ज बा..! मैं अेक विचित्र हालत मांय फंस चुक्यो हो – मैं अपणै-आप नै सावळ संभाळण नीं पाय रयो, पण फेरूं भी आपो गमावण री जगां बा को ही नीं। मैं किणी भांत म्हारा सगळा भावां नै समेट्यां बठै बैठ्यो हो। मन कर्यो कै तबियत खराब होवण रो बहानो काढ़’र बठै सूं भाज जावूं, पण कुसुम रो लोभ भी मनै काठो बांध लियो हो। मैं पैली केई बार मन नै समझावण री चेस्टा करी ही, उणीज भांत फेरूं अपणै-आप नै समझावण लाग्यो कै कुसुम तो कुसुम है गूंगा, आ कोई बा थोड़ी ई है! इयां तो उणियारां सूं के ठा’ गांव भर्या पड़या होसी!
“कविजी, इयां काईं सोच मांय पड़ग्या ..? फेर मोड़ो होय जावैलो, आपणो कार्यक्रम सरू कर देवो!” बा अधेड़ लुगाई बोली।
किणी भांत चेस्टा करनै मैं बोल्यो “बां नैं तो आवण देवो?” म्हारो मतलब म्हारै उण जाणकार दोस्त सूं हो, जिको मनै अठै ल्यायो हो।
बा बोली – “बै कोनी आवै। बै तो व्योपार री बातां मांय लागग्या है। थे सरू करो, बै आसी तो फेर आ जासी!”
उण रै लार री लार कुसुम भी बोल उठी – “हां कविजी, बां नैं के उडीकणो पड़्यो है, थे सरू करो!”
मनैं लखायो कै जाणै कुसुम रै रूं-रूं सूं ‘गा-गा-गा’ री धुनां उपड़ रयी है अर जाणै म्हारै रूं-रूं मांय आय-आय नै रळ रयी है। मैं जाणै कुसुम रै उण कमरै मांय नीं हूं, पण जाणै अणजाण्या बनखंडां मांय बैठ्यो हूं अर जाणै कुसुम कुसुम कोनी, पण अेक परी री ज्यूं बायरै पर चढ़नै म्हारै कनैं उतर आयी है। जाणै म्हारै ओळै-दोळै ई कठै कोई झरणा घणी अूचायां सूं झर रया है अर जाणै उण झरणां री लैकार मनैं झिंझोड़ती कयां जाय रयी है – “गा ! गा !! गा !!!”
मैं कुसुम कानी सूं म्हारी निजर नीं हटावणी चावतो, पण इयां कियां कर सकतो हो? इण खातर कमरै री सून्याड़ मांय म्हारी निजर थिर होगी ही। मैं नीं चावतो कै उण मांयली कोई सी जणी फेरूं मनैं क्युंई कैवै, जिको मैं गावणो सरू कर दीन्यो।
मैं अेक रै पछै अेक करतां तीन-च्यार गीत ई’ज गाया हा कै मनै म्हारा कंठ पिघळता-सा लखायीज्या, जाणै मैं सगळो रो सगळो गळ-गळ नैं गीतां रा सुरां मांय बैय जावूंला। मनै खुद नै लखाय रयो कै जाणै मैं खुद नी गाय रयो हूं। पण म्हारा सुर किणी घोर ऊंडायां मांय सूं उठ-उठ नै आभै मांय अूपर-सूं-अूपर उडता जाय रया है। पण में गायां जा रयो हो। थोड़ीक जेज पछै मनै लखायीज्यो कै जाणै कोई हळवीं-हळवीं सी सिसकार्यां म्हारै सुर मांय रळती जाय रयी है। पण फेरूं भी नेचळ गायां जा रयो हो। म्हारा सुर, जठै अेक तरळायी मांय सरजीवण होयग्या हा, बठै म्हारी निजर जाणै सून्याड़ मांय अेक पाखाण खंड बणगी ही। मैं मन मांय चेतो बपरायो कै कठै अै सिसकार्यां म्हारी खुद री तो नीं है? जितरैक तो म्हारी बांवोड़ी जांघ पर अेक कंवळो-कंवळो बोझ-सो पड़ग्यो हो अर कोई निवाई-निवाई सी तरळाई बूंदां म्हारा चरण पखाळण लाग रयी ही अर जाणै म्हारै बांवोड़ै हाथ पर भी कोई रेसमानी तार सा खिंडग्या हा। पण मैं गायां जाय रयो अर म्हारो गीत अूंचै सूं अूंचो चडतो जाय रयो हो। मैं थमणो नीं चावतो हो, पण अब म्हारै सूं नीं गायीज सक्यो। म्हारा कंठ रूंधीजग्या सा हा। मैं अबार ताईं किणी सुपनै मांय गाय रयो हो कै साच्याणी जागतो गाय रयो हो! कंठ रूंधीजण सूं म्हारो गीत अधबीच मांय थमग्यो हो। कोई बोलै न चालै, छिणेक मून छायोड़ो रैयग्यो। मैं पाखाणी मूरत री ज्यूं जियां रो जियां बैठ्यो हो। जाणै किणी मायानगरी रो जादूगर मनैं मन्तर फूंक’र पाखाण बणाय नाख्यो होवै अर कुसुम म्हारी गोदी मांय पड़ी सुबक-सुबक नै रोयां जाय रयी ही। मैं तो क्रियाविहूण हो, पण जाणै दूरां सूं आवती सी अेक भारी’र-भरभरायोड़ी सी अवाज मनैं सुणीज रयी ही। स्यात् बा अधेड़ लुगाई कैय रयी – “कुसुम, ओ तो अेक गीत है। गीत कोई साचा थोड़ा ई होवै! उठ, इयां बावळी नीं बण्या करै!”
पण कुसुम जाणै म्हारी गोदी मांय अेकूंकार होय जावणो चावती, बा आपरो मांथो हळवां-हळवां म्हारी गोदी मांय पछाड़ती बारूंबार कैयां जाय रयी ही – “चुप क्यूं होयग्या? कविजी, थे चुप ना होवो! गावो…गावो…गावो!”
म्हारै बिरमांड रै अणु-अणु मांय ‘गावो-गावो’ री गूंजां रा सरणाटा बन्धीजग्या। पण अबै मैं गा नीं सकूं, नीं गा सकूं! म्हारो गीत अधबिचाळै टूटग्यो हो अर गावण री बळबळती लपटां म्हारै रूं-रूं सूं उपड़ रयी ही। मैं गावणो तो चावूं, पण किण भांत गावूं?
अधेड़ लुगाई कैवती जाय रयी “अै ल्यो, कविजी, थे ई इण बावळी रै साथै रोवण लागग्या!”
बा अधेड़ लुगाई रोयी तो कोनी, पण उण री आंख्यां जाणै मांय ई मांय आंसुवां सूं भीज चुकी ही अर म्हारी पथरायी निजरां सूं साचला ईज झरणा बैय रया हा।
मैं तो चुप हो, पण कुसुम कैवती जाय रखी ही – “गावो…गावो…गावो…!” अर म्हारा जलम-जलमान्तरां री धुन म्हारी ई पाखाणी सूरत सूं टकराय-टकरायनै जाणै विगळित होयां जाय रयी ही।
छेवट, बा अधेड़ लुगाई कुसुम नै हाथ पकड़ नै म्हारी गोदी सूं उठायी अर बोली – “कविजी, अब बस करो! कुसुम, गैली होयगी के? उठ’र सावळ बैठी होय!”
उण अधेड़-लुगाई री चेस्टा सूं कुसुम नैं अर मनैं थोड़ो-घणो चेतो होयो हो अर म्हे दोनूं आप-आप रा आंसूं पूंछ लिया हा।
अब म्हारै सूं बठै नीं बैठ्यो रैयीज सकतो। इण बात नै स्यात् बै दोनूं जणी भी जाणगी ही। मैं बोलबालो ऊभो होयग्यो अर कमरै रै बारै नीसरण लाग्यो, जणा कुसुम बोली ही – “फेर कद आवोला!” मैं कैवणो चावतो कै “अबै नीं आवूंला, नीं आ सकूंला। म्हारा गीत अठै छोड़’र जावूं हूं। अै गीत म्हारा नीं, थारा है अर मैं म्हारा गीतां मांय बांध’र तनै लेय जावूं हूं तूं म्हारा गीतां मांय रळयोड़ी है!” पण ओ सो’ कीं में नीं कैय सक्यो म्हारै मूंडै सूं बस इतरो’ज नीसर्यो – “देखां, कद आवणो बणै, कद बखत मिलै! जणां बा पाछो कैयो हो – “आवणो जरूर पड़ैलो परस्यूं!”
बै लोग म्हारै उण जाणकार दोस्त नै बुला दियो अर बा ईज सागण कार मनै म्हारै अेडै सिर घालगी।
रात-भर नींद को आयी नीं।
पछै केई दिनां ताईं सोचतो रैयग्यो कै बा तो म्हारै कनै है, फेर कुसुम उण रै जिसी री जिसी कियां? सगळी बातां इतरी ठीक कियां मिलगी। वा भी आवै जितरी बार “गा…गा…गा…!” कैवै अर बा कुसुम भी उणरीज ज्यूं ‘गावो..गावो..गावो!’ करती रैयगी। ओ किसो अेक संजोग है।
इण बीच कुसुम रा केई बार बुलावा आया अर केई बार बा खुद टेलीफोन कर्यो, पण मैं फेर कदे उण रै अठै नीं गयो। मन तो सदीव करतो कै अबार उड़’र कुसुम कनै चल्यो जावूं, पण मैं मन नैं किणी भांत बांध लेवतो। मैं फेर उण रै कनै कदे गयो तो कोनी, पण उण नै मैं भूल भी नीं सकूं हूं। उण अधेड़ लुगाई री बात भी याद आवे कै “ओ तो गीत है। गीत कोई साचा थोड़ा ई होवै!” मैं उण री बात विचार करण लागूं कै कांईं साच्याणी गीत कोई साचा नीं होवै। फेर साचा कै होवै? जे गीत साचा नीं है, जणां म्हारी तो आखी जिंदगाणी ई’ज झूठी है। म्हारा जलम-जलमान्तर झूठा है। मैं इतरी जूणां झूठ-मूठ ई जीयी। अर बा तो कैया करै कै “तनै गीत गावण सारू फेर-फेर जलम धारणा पड़सी?” ‘नीं, आ नीं हो सकै, नीं हो सकै..!’ कुसुम उण रै सामैं रोयी ही, मैं उण रै सामैं गीत बण्योड़ो बैठ्यो हो, बा खुद गळूं-गळूं होय रयी ही। बा अधेड़ लुगाई झूठ बोलै ही। बा अेक परतख साच नैं झूठ इण खातर बता दियो कै अेक झूठै आवरण री जूण म्हारै अर उण रै च्यारूंमेर लिपटीज्योड़ी ही। गीत अेक साच है अर जुगां सू अेक साच रै रूप मांय सरजीवण है’!
कुसुम सूं मिलाप रो बो अजब संजोग क्युंई इसो ठावो असर म्हारै सुभाव पर नाख दियो कै जद में किणी भी लुगाई नै देखूं, जणां म्हारी अेक खोयोड़ी सी निजर उण मांय आपरी जलम-जलमान्तर री साथण ढूंढण लाग जावै! म्हारी कोई अणलोकाळ तिसना आपरी तूठना नैं हेरण लाग जावै! साच रै अूपर पड़्योड़ो ओ झूठो भरम म्हारै सूं नीं टूटै। स्यात् में उण रै सांयत रूप रो कोई चिलकारो कदे चूक नीं जावूं, इण खातर देख्या करतो होवूंला। कदास मोहाळ अेक तन्द्रा मिनख पर छायोड़ी रैवै अर बो किस्तूरी म्रिग री ज्यूं मैमंत भाजतो रैवै। इणीज भांत म्हारी समझ भी भोळी-ढाळी है। इण विचित्रताई नैं मैं नीं समझ सकूं।
अबार अठवाड़ै पैली री बात है।
मैं जूण जुद्ध मांय दिन भर जूझतो-जूझतो, जद रात-मा री गोदी मांय पूग’र म्हारी छात पर सूत्यो-सूत्यो काल दिनूगै सूं फेरूं जूझण रा मनसूबा बांध रयो हो, जणां बा छानी-मानी सी चान्द मांय सूं नीसरनै म्हारै कनै आयगी। म्हारो बो विचारां रो तार टूटग्यो। उण री मोवणी मुळक सूं जाणै म्हारा सगळा घाव भरीजग्या। उण री आंख्यां मांय भर्योड़ै अथाग हेत सूं जाणै म्हारा सगळा दुख’र सगळी पीड़ावां सिळाईजगी। पण उण रै कंठ री तिसना म्हारै अन्तस री तिसना नैं अेकूंकार करती बोल उठी – “गा ! गा !! गा !!!”
अब उण रो आवणो-जावणो म्हारै सैवणै पड़ चुक्यो है। उण री कोई बात मनै अप्रत्यासित नीं लखावै। अब मैं संयत रैयनै धीरजताई सूं बतळावण कर सकूं। उण रै आयां पछै गावणो तो जरूर पड़ै पण गीतां रा कोई तानाबाना पैली जरूर जोड़ीजै। उण रै आयां पछै में अेक कोई दूजै लोक मांय तो जरूर लखाईजूं, पण बो लोक अब म्हारो अणसैंदो कोनी रैयग्यो। मैं उण री गळी-कूंचळ्यां तकात मांय घूम चुक्यों हूं।
मैं उण री आंख्यां मांय म्हारी आंख्या थिर करतां बूझ्यो हो – “मैं कद-तकात थारा गीत इयां गावतो रैवूंला। इण गीतां सूं मैं अधबावळो-सो तो होयग्यो हूं। बता, तूं मनैं साव बावळो बणाय नाखणो चावै के? छेवट, इतरा दिन तो होयग्या गावतै नैं, बता, इण गीतां सूं म्हारो काईं बण्यो? आखर इण गीतां रो भी काईं बण्यो? अेक तूं सुण’र गीतां मांय रळ जावै, पण बाकी दुनियां रै इण गीतां सूं काईं लेवणो-देवणो?”
बा खिल-खिल-खिल करती हांस पड़ी अर जाणै कोई अणगिणती रा रांग-रंगीला रतन म्हारै अेवड़-छेवड़ ढुळ्या जाणै अणंत आभै रा आखा तारा बठै खिंडग्या! पछै वा अेक अणहद नाद रै संगीत रै कांधोळियै सूं सुर-साद उतार नै घणी ममताळी बाणी मांय बोली – “मैं तनै सदीव तो कैवती रैवूं कै तूं तो कोरा गीत गावण सारू जाम्योड़ो है। जलम-जलमान्तरां सूं तूं गावतो आय रयो है। आगी नैं भी जलम-जलमान्तरा-ताईं गायां जासी। तूं न तो अधबावळो है अर न कदे साव बावळो बण सकै। जिण नैं तूं बावळपणो जाणै, बो थारो बावळपणो कोनी, पण मानखै रै मन सूं तादात्म्य-भाव है। आखै मानखै रै मन सूं अेकमेक होवणै नै बावळपणो क्यूं जाणै? जिण भांत मैं थारा गीतां मांय रळ्योड़ी हूं, उणीज भांत थारा गीत मानखै रा सुख-दुखां मांय रळ्योड़ा है। मिनख री सहजताई ईज अेक गीत है। मिनख रो चिन्तण ईज गीतां रा सुर-साद गूंथै। थारै खुद रै चेतै नीं है।
कै आज-तकात तूं कितरा न कितरा रूप धर-धर नैं गाय चुक्यो है अर अेक अणंत काळ सूं तूं गायां जाय रयो है। इण दुनियां मांय थारा ई कितरा न कितरा रूप रळ्योडा है, जिकां नैं तूं सांवळ नीं ओळख सकै! थारा ई’ज गीतां सूं तो आ सिस्टी अूपज्योड़ी है। थारा गीत नीं होवता तो इण दुनियां री कल्पना नीं करीज सकती। इण रो रूपाकार क्युंई दूजी ई’ज होवतो। नीं तो भावना होवती अर नीं भगवान होवतो, अर भावना’र भगवान सूं बिहूण दुनियां री कल्पना करनै देख दिखां, बा किसीक बेडोळ होवती? अर तूं कैवै कै गीतां सूं के बण्यो? गीतां रो के बण्यो? तो सुण, गीत सूं न्यारी मानखै री जूण नीं हो सकै, नीं हो सकै!”
बा थोड़ी’क ताळ थम’र म्हारी चेतणा पर आपरी कूंळी आंगळ्यां फेरी अर म्हारो अन्तस सैंचन्नण होयग्यो। पछै बा बोली – “तनै दूणै जोस सूं, दूणै उच्छाव सूं गायां सरसी, नींतर दुनियां बेडोळ’र बिरंग होय जावैली! नींतर आ पत्थर बण जावैली! नींतर कठैई बुहाव कै तरळाई नीं रैय जावैली! थारा गीत म्हारै सारू है, अर मैं ई’ज तो आखी सिस्टी हूं, दुनिया हूं। इण खातर अबै – “गा ! गा !! गा !!!”
मैं के ठा’ कितरीक ताळ गावतो रयो!
के ठा’ कितराक अणंत-काळां ताईं गावतो रैवूंला!