काजळ री कोटड़ी कुण बचै भाया

सगळा ही गीत बीरा रा ही गाया

भीतड़ां रै कान व्है सुणी ही म्हैं

पोल खोल फंसग्या रामलुभाया

जुगां सूं देखां हां कुण है आपणो

जीं रै गळे लागा वै ही छिटकाया

घोटाळा आज है कालै भी खूब हा

असी आग है बुझै नीं बुझायां

निबळा रोवै तो कुण दे हिमळास

वै तो पैली ही करमां रा सताया।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली ,
  • सिरजक : विनोद सोमानी ‘हंस’ ,
  • संपादक : श्याम महर्षि ,
  • प्रकाशक : मरुभूमि सोध संस्थान राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रचार समिति, श्रीडूंगरगढ़
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