घुग्घा ने परभात, आसे नी आवे।

नी व्हे जतरे रात, आसे नी आवे॥

दूजां ने उपदेस देणो होरो है—

खुद ने खुद री वात, आसे नी आवे।

‘परतछ ने परमाण’, ओरी कइ चावे?

सुख ने दुख रो साथ, आसे नी आवे।

वत्ती व्हेतां भीह, बेड़ो गरक करे—

ओछी व्ही वरसात, आसे नी आवे।

‘गुप्तेश्वर’ गुर सीख, समझ्यां ही लागे—

अणसमझ्यां केणात, आसे नी आवे।

स्रोत
  • पोथी : फूंक दे, फूंक ,
  • सिरजक : पुष्कर ‘गुप्तेश्वर’ ,
  • प्रकाशक : बोधि प्रकाशन ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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