एक काळम्या को ही घेरो।

सुख थोड़ो, संताप घणेरो॥

मनखपणो खो गयो जगत सूँ,

मिल जावै तो थें भी हेरो॥

कोरी बाताँ घणी हुई अब,

नव जीवन को गीत उकेरो॥

अब तो भैंस सपट ऊँ की ही,

जीं के हाथाँ होव कुतेरो॥

सूरज ज्यूँ उजळा बणजावो,

फेर कठी सूँ आय अँधेरो॥

रामदयाल विगत ईं छोड़ो,

आबा हाळो बगत अवेरो॥

स्रोत
  • पोथी : राजस्थानी गंगा (हाड़ौती विशेषांक) जनवरी–दिसम्बर ,
  • सिरजक : रामदयाल मेहरा ,
  • संपादक : डी.आर. लील ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ज्ञानपीठ संस्थान