क्यूं म्हे किण री बात करां।

सोची कहतां घणा डरां।

माड़ो बखत घण आयो,

फूंक-फूंक म्हे पांव धरां।

बेमतलब कुण बात करै,

क्यूं म्हे झूठी आस करां।

भलो बुरो सै जाणै है,

क्यूं किण सूं बकवास करां।

हाथ, हाथ ने खावै है,

किण रो म्हे विश्वास करां।

बतलावण सूं पैला’

म्हे बाबू रै भेंट धरां।

निवड़ी लाज जमानै री,

टीवी देखां लाज मरां

ढूंढ्या राम मिल्या कोनी,

रावण मिलग्या घरां-घरां।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थली गजल विशेषांक ,
  • सिरजक : गौरीशंकर आचार्य ‘अरूण’ ,
  • संपादक : श्याम महर्षि ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी साहित्य संस्कृति पीठ
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