गलगलती या, रात चलीगी
अँधियारो ग्यो पोढ़
सूरज निकल गयो धीराँ सूँ
धुन्ध कांवळो ओढ़—
सारो ताप जेठ कैयां गहणे धरग्यो रे
असी लागरी सूरज जाणै सींया मरग्यो रे।
बरगद बोल्यो असाढ़ी में
भरर जवानी छावै,
ओस की बूँदां देख—देख
मंदरी—मंदरी मुसकावै,
बूढ़ो सूरज जातो जातो
पर्वत ने समझावै
बगत एक सो कद होवै
दन ढलती का भी आवै
समंदर काल बणर सन्ध्या ईं देख निगळग्यो रे
असी लागरी सूरज जाणे सींया मरग्यो रे।
धरती की रग रग उमगे
जद परभाती बेला आवै
बुझी बुझी सी लगे बच्यारी
सांझ पड़्याँ जद ढळ जावै
सासू सी या रात अंधेरी
रह रह ताना मारे
होणी तो बस होती आवै
कुण जीते कुण हारे
जातो, गोद धरा के सारी पूंजी धरग्यो रे
असी लागरी सूरज जाणै सींया मरग्यो रे