मत जाओजी शहर में म्हारा रामधणी,

एकली तड़पैगी थाँकी जीव की जणी॥

पिहरियाँ सूं आया थाँनै हो या छै दन आठ जी

आता ईं जाबा की बोली अस्यो कांई घाट जी

थाँकै पैप्याँ पडूँजी जी म्हारी सुणो तो सणी...

थांकै बना सासरिया में जियो नाहीं लागै

जवानी को जायो मन छै, अठी उठी भागै

खाटां—दांवण्याँ ये लागै जाणै तणी तणी...

चन्दा बना चांदणी’र भी लागै न्हँ सुहाणी

चातळ पंछी तरसै बालम बना बूँद भर पाणी

थाँकै बिना रह पाऊँगी कश्याँ बणी ठणी...

कस्याँ समझाऊँ थाँनै, कस्याँ जी मनाऊँ

थाँकी सौगंध ऐकली र्‌हैबा सूँ घबराऊँ,

थाँकै पाछै सूँ ताकैगा लोग दणीं...

स्रोत
  • पोथी : राजस्थानी गंगा (हाड़ौती विशेषांक) जनवरी–दिसम्बर ,
  • सिरजक : रघुवीर प्रजापति ,
  • संपादक : डी.आर. लील ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ज्ञानपीठ संस्थान
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