बरस बादळा यार भायला! प्यासी धरती तरसै छै,

करसा के घर हरख मनाजा, ऊँ की आँख्यां बरसै छै

जल बिन पडी दरारां, नंदी नाळा सगळा सूख्या,

चारो सूख्यो गौ माता को, सब का हिवड़ा दूख्या,

सावण में कंजूसी करग्यो, तू नुंगरो मन दरसै छै।

कोयल ने कूंकाबो छोड्यो, आंबा सूना होग्या,

हरियाळी मावस का हिंदा, खाली दूना होग्या,

साजन बिन पाटकड़ी रीती, अब गोरी तरसै छै।

ईं प्यासी धरती पे सारंग, अमृत सो जळ पूराजा,

रीता पड़्या सभी खेताँ में, अब हरियाळी लहराजा,

घर की रास संभाळै तू तो साईसैती बरसै छै।

स्रोत
  • पोथी : राजस्थानी गंगा (हाड़ौती विशेषांक) जनवरी–दिसम्बर ,
  • सिरजक : रामकरण प्रभाती ,
  • संपादक : डी.आर. लील ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ज्ञानपीठ संस्थान
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