सहणी सबरी हूँ सखी, दो उर उलटी दाह।

दूध लजांणौ पूत सम, वलय लजाणौ नाह॥

हे सखी! और सब बातें मुझे सहन हो सकती है किन्तु यदि प्राणनाथ मेरे वलय (चूड़ीयों) को लजा दे और पुत्र मेरे दूध को तो ये दो बातें मेरे लिए समान रूप से दाहकरी एवं ह्रदय को उलट देने वाली है। असह्य है।

स्रोत
  • पोथी : वीर सतसई (वीर सतसई) ,
  • सिरजक : सूर्यमल्ल मिश्रण ,
  • संपादक : डॉ. कन्हैयालाल , ईश्वरदान आशिया, पतराम गौड़ ,
  • प्रकाशक : राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधपुर
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