बैसाखां तावड़ ब्रिथा,

काळ जद कटकाय।

मारग चलतौ मांनखौ,

भव भव में भटकाय॥

माटी सूं सनमुख हुवै,

कोपै सूरज कुद्ध।

झाळां सूं जगती जमीं,

जांणै छिड़ग्यौ जुद्ध॥

तावड़ तड़तड़तौह,

बरसातौ अगन भळैह।

मुरझावण धर मुरधरा,

काळ’ज करै कळैह॥

सूरज नै समझावती,

धोरां री धरतीह।

कह दै बोली काळ ने,

म्हासूं ना उलझीह॥

स्रोत
  • पोथी : रेवतदान चारण री टाळवी कवितावां ,
  • सिरजक : रेवतदान चारण कल्पित ,
  • संपादक : सोहनदान चारण ,
  • प्रकाशक : साहित्य अकादेमी ,
  • संस्करण : प्रथम संस्करण
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