द्रव्य असंख्यात प्रदेसी जीव, नित रों नित रहसी सदीव।

ते मास्यों पिण मरें नाही, वले घटें, बधे नही कांइ॥

भावार्थ : जीव अंसख्यात प्रदेशी द्रव्य है। वह सदा नित्य रहता है। वह मारने पर नहीं मरता और थोड़ा भी घटता-बढ़ता है।

स्रोत
  • पोथी : भिक्षु वांड़्गमय भाग 1 ,
  • सिरजक : आचार्य भिक्षु ,
  • संपादक : आचार्य महाश्रमण, मुनि सुखलाल, मुनि कीर्तिकुमार ,
  • प्रकाशक : जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) ,
  • संस्करण : प्रथम
जुड़्योड़ा विसै