हियै लगावूं प्रेम स्यूं, पळ-पळ निरखूं रूप।

म्हारी मरवण मदभरी, लागै घणी सरूप॥

धरणी धण आभो नरो, पावस उणरी प्रीत।

सावण-भादवै आयनै, सदा निभावै रीत॥

नद-जोबन है नीर में, आयो अजब उफाण।

उमड़-घुमड़नै तोड़िया, कोर, कांगरा, काण॥

मुळक हियै री ऊतरी, होठां माथै आय।

मदमाती-सी गोरड़ी, जोबन झोला खाय॥

मतना ऊभो आंतरी, बैठो बाजू आय।

निरखां थारै रूप नै, जलम सुफल हो जाय॥

कंचन वरणी कामणीं, नागण वरका केस।

पदमण आई पावणीं, छोड़’र पूंगल देस॥

सावण-भादै सायबा, मतना जाज्यो दूर।

बरसै बिरखा मोकळी, नद जोबन भरपूर॥

घूंघट झांकै गोरड़ी, मदभरिया-सा नैण।

निरख-निरख नै बावळा, के टाबर के डैण।

ओळ्यूं आवै आपरी, झूरै म्हारो जीव।

परदेसां री चाकरी, कद आवोला पीव॥

मुळकै तो मोती झड़ै, बातां बिगसै फूल।

कंचन-काया देखतां, जावूं खुद नै भूल॥

स्रोत
  • पोथी : कथेसर ,
  • सिरजक : केशरीलाल स्वामी ‘केशव’ ,
  • संपादक : रामस्वरूप किसान
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