बीत्या कई बसंत पण, एक अंग अड़्यो।

एकल तपै उजाड़ में, कांटां कैर जड़्यो॥

कुढ़ै मती तूं कमलणी, बुगलां रै बरताव।

भंवरो रस रो भोगतो, उण सूं राख लगाव॥

लूंकां पूंछ रमाय तैं, डूंकाया बै ओर।

लाहोरी लारै पड़्यो, झिरक्यां अब के जोर॥

पिणघट जुड़्यो पड़ोस में, पणिहारी चट पूंच।

जे रीती रोती घिरी, करणो पाछो कूंच॥

पाड़ सुहागो प्रेम सूं, बीजी चोखो धान।

हाळो हाकम लेयसी, पड़ै चूक किसान॥

सोनी हाट उठायले, अठै दीसै सार।

बाजैली इण बास में, घणां तणी धमकार॥

रेसम रा लच्छा बुणै, कीड़ा तूं कटरूप।

सांप भखण रो काम बस, ध्रिग ध्रिग मोर सरूप॥

कळियां काल कहावता, आज कहीजो फूल।

कुमला जास्यो काल थे, बांटो बास समूल॥

पवन प्रबळ अप्रमाण, लट्ठां रो के लेयसी।

फूलां फळियां हाण, डांखळ तो रहसी डट्या॥

स्रोत
  • पोथी : बाळसाद ,
  • सिरजक : चन्द्रसिंह बिरकाळी ,
  • प्रकाशक : चांद जळेरी प्रकासन, जयपुर
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